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________________ अट्ठारहवा अध्याय आगम - मंदिर तन्मयता मुनिवरों के अधिनायकत्व के प्रतीक रूप पवित्र आचार्य-पदवी प्राप्त होने पर भी पूज्य आगमोद्धारकजी जब आगो का संशोधन करने बैठते और प्राचीन, जीर्ण, धूलिघूसर आगम-प्रतियों के अर्धविगलित पृष्ठ फिराने लगते तब उसमें एक अदम्य उत्साही नवयुवक साधु की तरह ओतप्रोत हो जाते थे। उस समय यदि कोई अनजामा आगन्तुक पूज्यश्री की प्रतिभा की ख्याति मुन कर दर्शन-वन्दनार्थ अनायास आ जाय तो कल्पना नहीं कर सकता था कि ये पू० भागमाद्धारक जी हैं या एक उत्साही सेवक साधु है। - पूज्यश्री इस कार्य में ऐसे तन्मय हो जाते थे कि उन्हें आगन्तुक का ध्यान ही न भाता । जब सहज भाव से या किसी कारणवशात् ऊँची निगाह करते तभी आनेवाले पुण्यवान् पर ध्यान जाता। एक बार पूज्यश्री को किसी प्राचीन भंडार की कुछ ताडपत्र की तथा कुछ कागज पर लिखी प्रतियाँ मिली। ये पोथिया अत्यन्त जीर्ण शीर्ण अवस्था में थी। उनके अधिक समय टिकने की भाशा नहीं थी। इन में ५०० से १००० वर्ष पुरानी पाथिया थी। पूज्य श्री हन सब प्रतियों का पूज्यभाव से बहुत ध्यानपूर्वक निरीक्षण करते थे, साथ ही मन-ही-मन कुछ अगम्य वस्तुका विचार करते थे। ...
SR No.032387
Book TitleAgamdharsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherJain Pustak Prakashak Samstha
Publication Year1973
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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