SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 890
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८२० नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं साध्वीप्रमुखा प्रवर्तिनी महासती श्री बदनकंवर जी म.सा. सरलता, सहिष्णुता, सहजता, सहृदयता, सात्त्विकता व संतोषवृत्ति की साकार प्रतिमा महासती श्री बदनकंवर | जी म.सा. का जन्म वि.सं. १९६६ आश्विन शुक्ला प्रतिपदा को भोपालगढ़ के पास ' गारासणी' ग्राम में वहाँ के | कामदार श्रेष्ठिवर्य श्री मोतीलालजी चतुरमुथा की धर्मशीला सहधर्मिणी श्रीमती सुन्दरबाई की कुक्षि से हुआ । • बालिका बदनकंवर की बाल-क्रीडाएँ सामान्य बालक-बालिकाओं से विशिष्ट थीं। बचपन में भी मुख वस्त्रिका बाँधना, पूँजनी रखना और छोटी-छोटी कटोरियों के पातरे तथा रुमाल की झोली बनाकर आहार बहरने जाना इत्यादि क्रीडाओं में आपको बहुत आनन्द आता । माता-पिता की लाड़ प्यार भरी शीतल छांव में आपका लालन-पालन हो रहा था कि क्रूरकाल के क्रूर पंजों ने पिताश्री का साया असमय ही छीन लिया। छह वर्ष की अबोध बालिका 'बदन' को असार संसार के स्वरूप का परिचय मिल गया। पूरा परिवार ननिहाल भोपालगढ़ आ गया । १३ वर्ष की वय में . | आपका भोपालगढ़ निवासी प्रतिष्ठित श्रावक श्री धींगड़मलजी कोचर मेहता (बागोरिया वाले) के सुपुत्र श्री | बख्तावरमल जी के साथ परिणय हुआ। सभी 'बदन' के भाग्य की सराहना कर रहे थे, धर्मानुरागी सुसंस्कारी कोचर परिवार भी 'बदन' सी वधू पा प्रसन्नचित्त था, पर 'होनी' को कुछ ओर ही मंजूर था । पुनः काल का प्रकोप हुआ और बदन के सौभाग्य सिन्दूर श्री बख्तावरमलजी को झपट चला। बदनकुँवर हतप्रभ रह गई । अश्रुधारा की जगह उसने उसी दिन मौन साध ली। पति के वियोग को संयम - संयोग का निमित्त मानकर संसार की असारता का साक्षात् अनुभव कर आपने मन ही मन दीक्षा लेने का संकल्प कर लिया। परिजन दीक्षा देने को सहमत नहीं थे, पर आपकी निर्भीकता व दृढ़ता के आगे सबको निरुत्तर होना पड़ा। अजमेर की बहिन चम्पाजी से आपने अक्षर ज्ञान प्रारम्भ किया। सरल, सौम्य, भद्रिक संत श्री लाभचन्दजी म.सा. एवं दृढ संयमी महासती श्री अमरकंवर जी म.सा. के पावन सान्निध्य से आपकी | वैराग्य भावना और अधिक बलवती हो उठी। आप प्रारम्भ से ही निर्भीक व दृढ निश्चय की धनी थीं। अजमेर साधु-सम्मेलन में जाकर आपने आरम्भ समारम्भ व सचित्त - त्याग जैसे कई त्याग-प्रत्याख्यान स्वीकार कर लिये । आपने वैराग्यावस्था में सामायिक, प्रतिक्रमण, कई बोल थोकड़े व ढालें कंठस्थ करते हुए अध्ययन क्रम चालू रखा । वि.सं. १९९१ माघ शुक्ला पंचमी को सिंहपोल जोधपुर में परम पूज्य आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा. के | मुखारविन्द से व पूज्या महासती जी श्री अमरकंवर जी म.सा. के निश्रा में आपकी भागवती श्रमण दीक्षा सम्पन्न हुई । दीक्षा लेकर जीवन लक्ष्य पर आप अप्रमत्त भाव से आगे बढ़ने लगीं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र का विकास ही अब | आपका जीवन लक्ष्य था । जीवन के प्रारम्भ में शिक्षा न पाने के कारण भले ही शाब्दिक विद्वत्ता कम रही हो, पर 'ज्ञानस्य फलं विरतिः' की सच्ची विद्वत्ता का पाठ आपने बखूबी पढ़ा। संयमधर्म में आपकी अटूट आस्था थी, | सरलता ही जीवन का आभूषण था, पूज्या गुरुणी श्री अमरकंवर जी म.सा. एवं महासती श्री केवलकंवर जी म.सा. के पावन सान्निध्य में आपका संयम जीवन निखरा । उन्होंने आपके जीवन में उच्च संस्कार व संयम निष्ठा कूट-कूट कर भरी । महासती द्वय का पावन साया भी कुछ अरसे तक बना रहा व संघाड़े का दायित्व आपको संभालना पड़ा । महासती श्री बदनकंवर जी म.सा. सहज पुण्यशालिता की धनी थे। बचपन में माँ-बाप का अतिशय दुलार, दीक्षा - जीवन में पूज्या गुरुणी जी व महासती श्री केवलकंवर जी म.सा. का शीतल सान्निध्य व बाद में गुरुणी भगिनियों व शिष्याओं का समादरपूर्ण सहयोग व समर्पण आपको प्राप्त हुआ। आपने जीवन में कभी प्रवचन नहीं
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy