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________________ परिशिष्ट - द्वितीय चरितनायक के शासनकाल में दीक्षित सन्त-सती युगमनीषी अध्यात्मयोगी आचार्यप्रवर श्री हस्तीमलजी म.सा. के शासनकाल में ३४ सन्तों एवं ५१ सतियों ने | दीक्षित होने का सौभाग्य प्राप्त किया। यहाँ पर प्रमुख सन्तों एवं सतियों का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। (अ) प्रमुख सन्तवृन्द का परिचय • श्री छोटे लक्ष्मीचन्दजी म.सा. सेवाभावी श्री छोटे लक्ष्मीचन्दजी म.सा. का जन्म वि.सं. १९६२ की माघ कृष्णा सप्तमी को मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र के अन्तर्गत 'महागढ' नामक ग्राम में श्री पन्नालालजी की संस्कारशीला धर्मपत्नी श्रीमती अचरजकंवरजी की कुक्षि से हुआ। पूज्य आचार्यप्रवर श्री हस्तीमलजी म.सा. जब वि.सं. १९८८ के आषाढ माह में महागढ पधारे तो दर्शन-प्रवचन एवं सत्संग-सेवा से प्रभावित होकर लक्ष्मीचन्दजी के मन में वैराग्यभाव जाग उठा। इसी वर्ष आचार्यप्रवर के रामपुरा चातुर्मास में उन्होंने श्रावक के १२ व्रत अंगीकार किए और श्रद्धा-भक्ति के कारण गुरुदेव की सेवा में रहने का क्रम निरन्तर बढ़ता गया। आपकी प्रबल भावना से एवं सुश्रावक श्री रतनलालजी नाहर, बरेली के समझाने से आपके चाचा श्री इन्द्रमलजी चौहान आदि स्वजनों ने अनुमति प्रदान कर दी और वि.सं. १९८९ की आषाढ कृष्णा पंचमी के शुभ मुहूर्त में मुमुक्षु लक्ष्मीचन्दजी ने आचार्यप्रवर के मुखारविन्द से उज्जैन में भागवती दीक्षा अंगीकार की। दीक्षोत्सव के समय चतुर्विध संघ की विशाल उपस्थिति थी। दीक्षा में उज्जैन के गुरुभक्त सुश्रावक श्री लक्ष्मीचन्दजी चोरडिया का सराहनीय योगदान रहा । दीक्षा के अनन्तर आपने तपश्चरण और शास्त्राध्ययन के साथ समर्पण, विनय एवं वैयावृत्त्य को जीवन का अंग बनाया। आप अपने पूज्य गुरुदेव की शारीरिक चेष्टा मात्र से ही समझ लेते कि गुरुदेव को क्या अभीष्ट है, एवं वैयावृत्त्य में जुट जाते। आपको थोकड़ों का गहन ज्ञान था तथा आगन्तुक भक्तों को थोकड़ों का ज्ञान कराने में आपकी विशेष अभिरुचि थी। आप गोचरी के विशेषज्ञ सन्त थे। आचार्यप्रवर के आप प्रथम शिष्य थे। अपनी सहज हित-भावना एवं अगाध सेवा-भक्ति के कारण आप सन्तों के मध्य 'धाय माँ' के रूप में आदृत हुए। ___आपके अधिकांश चातुर्मास आचार्यप्रवर के सान्निध्य में ही हुए। भोपालगढ़ (संवत् २०२८), आलनपुर (संवत् २०३१), जोधपुर (संवत् २०३२), महागढ (संवत् २०३५) एवं बल्लारी (संवत् २०३८) के चातुर्मास ही आपके स्वतंत्र चातुर्मास थे, जो ज्ञानवर्धन की दृष्टि से सर्वथा सफल रहे। मधुरभाषी एवं आचारनिष्ठ सन्त का दक्षिण भारत की पदयात्रा के समय वि.सं. २०३८ की पौष शुक्ला पूर्णिमा तदनुसार ९जनवरी १९८२ को रात्रि में ३ बजकर २०मिनट पर बीजापुर (कर्नाटक) में आकस्मिक हृदयाघात होने से स्वर्गवास हो गया। आपने लगभग पचास वर्ष संयम-पर्याय का पालन किया। • श्री माणकचन्द जी म.सा. __भजनानन्दी श्री माणकमुनिजी म.सा. का जन्म वि.सं. १९६७ फाल्गुन शुक्ला षष्ठी को मध्यप्रदेश के धार जिलान्तर्गत नालछा ग्राम में हुआ। आपके पिता श्री हजारीमलजी कांकरेचा तथा माता श्रीमती धनकंवरजी थीं।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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