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________________ पंचम खण्ड: परिशिष्ट ८०३ | समय आपने फरमाया जिसका कुछ अंश इस प्रकार था - " यशस्विनी रत्नसंघीय परम्परा के षष्ठ पट्टधर स्वनामधन्य | प्रातः स्मरणीय श्रद्धेय आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी महाराज को स्वर्गस्थ हुए आज ३ वर्ष ९ मास और ३ दिन पूरे होने जा रहे हैं। मुनि श्री हस्तीमलजी महाराज ने अध्ययन का समय मांगा था । चतुर्विध संघ ने मुनि श्री की दूरदर्शिता | और श्लाघनीय विवेकपूर्ण इच्छा को बहुमान देकर इन्हें अध्ययन का अवसर दिया और संघ-संचालन की व्यवस्था | का दायित्व मुझे सौंपा। मुनि श्री हस्तीमलजी महाराज अपना अध्ययन सम्पन्न कर सुयोग्य विद्वान् बन गये हैं। इनके सर्वविदित विनय, विवेक, वाग्वैभव, प्रत्युत्पन्नमतित्व, विलक्षण प्रतिभा, कुशाग्रबुद्धि, क्रियापात्रता, अथक श्रमशीलता, कर्तव्यनिष्ठा, मार्दव, आर्जव, निरभिमानता आदि गुणों पर हम सबको गर्व है । ये सुयोग्य आचार्य के सभी गुणों से सम्पन्न हैं। हम सब इन्हें आचार्य श्री रत्नचन्द्र जी महाराज की सम्प्रदाय के सातवें पट्टधर के रूप में आचार्यपद पर प्रतिष्ठित करते हैं । ये वय से भले छोटे हैं, किन्तु गुणों एवं पद से बहुत बड़े हैं। मुझे भी आपकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करना है और आप सब सन्त-सतियों तथा श्रावक-श्राविकाओं को भी ऐसा ही करना है।” आपके उद्बोधन से आपकी लघुता, उदारता, सरलता के साथ ही संघनायक के प्रति सर्वतोभावेन समर्पण व समादर की भावना परिलक्षित होती है । स्वामीजी महाराज सरलता के भंडार थे। उनका कण-कण सरलता के मधुर रस से व्याप्त था । मन, वाणी और काय की त्रिवेणी में सरलता सदा प्रवाहित होती रहती थी । वे कृत्रिमता से कोसों दूर थे। उनके हृदय में जो कुछ भी होता, रसना से वही प्रकट हो जाता। दोनों में अनुपम अद्वैत था । उनका अन्तर सर्वथा स्वच्छ, निर्मल व निर्विकार था । पुराण पुरुष होते हुए भी उनके विचारों में सहज उदारता व अद्भुत सजीवता थी । वे जपी, तपी और | स्पष्टवादी संत थे । आप जैसा सोचते, वही बोलते व करते । मन, वचन व कर्म में अद्भुत साम्य था । आपके जीवन की यही विशेषता व हृदय की सरलता आपके तीखे स्पष्ट वचनों को भी मृदु बना देती । आपका व्याख्यान जोशीला व प्रेरणाप्रद होता । आपकी वाणी में ओज, गांभीर्य व परिणाम की मधुरिमा थी । ७० वर्ष से ऊपर की वय में भी आपमें तरुणों सा उत्साह व संयम में अद्भुत पराक्रम परिलक्षित होता था । भक्तजन आपको आदर से 'बाबाजी महाराज' के संबोधन से संबोधित करते थे । आपका अन्तिम समय जोधपुर व विशेषतः कांकरिया बिल्डिंग में व्यतीत हुआ। आपकी इच्छा थी कि अन्तिम समय में पूज्य श्री (हस्तीमल जी म.सा.) का सान्निध्य लाभ मिले। आपको अपनी भावनानुसार पूज्य आचार्यदेव का सान्निध्य प्राप्त हुआ । वि.सं. २०१० माघ कृष्णा चतुर्दशी को पिछली रात्रि में संथारापूर्वक इस महायोगी ने समाधिमरण प्राप्त किया। सेवाव्रती साधक श्री भोजराज जी म.सा. • दीक्षा, वय और अनुभव में वृद्ध होकर भी जिन महापुरुष ने अपने लघुवय आचार्य की पूर्ण श्रद्धा व समर्पण | भाव से सेवा की तथा अध्ययन काल में संरक्षकवत् मातृतुल्य सेवा की, वे महापुरुष थे - सेवाव्रती साधक श्री भोजराज जी महाराज साहब । आपका जन्म वि.सं. १९४४ में आसोप - खिंवसर के मध्य स्थित ललाव गांव के जाट परिवार में हुआ। शुभ संयोगवश आप नौकरी हेतु भोपालगढ़ के प्रतिष्ठित श्रावक श्री मोतीचन्द जी चोरड़िया के परिवार में आये । जहाँ सहज ही आपको संत समागम का स्वर्णिम सुअवसर प्राप्त हुआ। महापुरुषों का समागम भव-भव के बन्धन काटने
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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