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________________ चतुर्थ खण्ड : कृतित्व खण्ड ७५३ रूप,” “मेरे अन्तर भया प्रकाश”, “मैं हूँ उस नगरी का भूप", "सत्गुरु ने बोध बताया”, “जीवन उन्नत करना चाहो”, “घणो सुख पावेला”, “शिक्षा दे रहा जी हमको”, “सेवा धर्म बड़ा गम्भीर” आदि। इनमें अधिकांश रचनाएँ आत्मबोध का उपदेश देती हैं, कुछ रचनाएँ आत्मबोध और समाजबोध दोनों से जुड़ी हुई हैं। " हे उत्तमजन आचार”, “सांचा श्रावक तेने कहिए", "प्यारी बहनों समझो”, “समझो समझो री माता", "जिनराज भजो सब दोष तजो' आदि इसी प्रकार के भजन या पद हैं। आत्मबोध की दृष्टि से आचार्य श्री की अनेक रचनाएँ प्रसिद्ध हैं, उनमें से एक की | शब्दावली यहाँ प्रस्तुत है मेरे अन्तर भया प्रकाश, नहीं अब मुझे किसी की आश ॥ टेर || तन धन परिजन सब ही पर हैं, पर की आश निराश । पुद्गल को अपना कर मैंने किया स्वत्व का नाश ॥१ ॥ रोग शोक नहिं मुझको देते, जरा मात्र भी त्रास सदा शान्तिमय मैं हूँ मेरा, अचल रूप है खास ॥२ ॥ स्वाध्याय और सामायिक आचार्य श्री के प्रमुख दो उपदेश रहे हैं। स्वाध्याय को वे जन-जन के लिए आवश्यक मानते हैं स्वाध्याय बिना घर सूना है, मन सूना है सद्ज्ञान बिना । घर घर गुरुवाणी गान करो, स्वाध्याय करो स्वाध्याय करो । आत्म-ज्योति प्रकट करने के लिए स्वाध्याय आवश्यक है तथा स्वाध्याय से ही ज्ञान सम्भव अतः वे कहते बिन स्वाध्याय ज्ञान नहीं होगा, ज्योति जगाने को राग द्वेष की गांठ गले नहीं, बोधि मिलाने को ॥ जीवन का निर्माण करने के लिए जिस प्रकार स्वाध्याय उपयोगी है, उसी प्रकार सामायिक भी आवश्यक है अगर जीवन बनाना है, तो सामायिक तू करता जा । हटाकर विषमता मन की, साम्यरस पान करता जा ।। मिले धन सम्पदा अथवा, कभी विपदा भी आ जावे । हर्ष और शोक से बचकर, सदा एक रंग रहता जा | सामायिक जीवन उन्नति का साधन है। जिस प्रकार तन की पुष्टि के लिए व्यायाम आवश्यक है उसी प्रकार मन के पोषण और आध्यात्मिक बल के लिए सामायिक आवश्यक है— जीवन उन्नत करना चाहो, तो सामायिक साधना कर लो। आकुलता से बचना चाहो, तो.... सा. ॥टेर ॥ तन पुष्टि-हित व्यायाम-चला, मन पोषण को शुभ ध्यान भला आध्यात्मिक बल पाना चाहो तो... ॥सा. ॥ महिलाओं को शिक्षित करने की दृष्टि से भी आचार्य श्री ने अनेक भजनों का निर्माण किया। कभी बहनों के रूप में तो कभी माताओं के रूप में, संबोधित करते हुए उन्हें हितशिक्षा प्रदान की है
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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