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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ७४४ कर्म प्रबल है' आदि शीर्षक उपलब्ध हैं। ____ 'त्याग का महत्त्व' शीर्षक से प्रकाशित प्रवचन में आपने फरमाया - “आनन्द भौतिक वस्तुओं के राग में नहीं. त्याग में है, यह बात जब घट में उतर जायेगी, मन में समा जायेगी तब क्या कभी आपस में किसी से झगडोगे ? तब क्या कभी बाप-बेटे में लड़ाई होगी ? पड़ौसी-पड़ौसी से कलह होंगे ? यदि यह राग का विष दिल और दिमाग से उतर गया तो दुनिया भर के सारे झगड़े कलह, अशांति और द्वेष न जाने कहाँ विलीन हो जायेंगे। जड़ || मूल से कट जायेंगे।” धर्म के सम्बन्ध में आचार्यप्रवर ने फरमाया - “धर्म के दो पाये हैं- एक आर्जव भाव और दूसरा मार्दव भाव, जिन्हें विनय और सरलता कहा गया है। विनय और सरलता जहाँ है उस कुटुम्ब में, गांव में, नगर में, राष्ट्र और ! | जाति में धर्म टिक सकता है और जहाँ इनका अभाव है वहाँ धर्म नहीं रह सकता।” 'समय कम और मंजिल दूर' नामक प्रवचन में आचार्य प्रवर ने फरमाया - "मन, वाणी और काया के साधन जो प्राणी को मिले हैं उनकी प्रवृत्ति निरन्तर चलती रहती है, परन्तु इनकी प्रवृत्ति से कर्म काटने के बजाय कर्म बांधे जा रहे हैं। प्रश्न होता है कि इससे बचा क्यों नही जाता। तो इसका समाधान है कि अन्तर में कर्म काटने का या मंजिल पाने का सही दर्द नहीं जागा। जब तक प्रबल विरतिभाव जागृत नहीं हो तब तक कुछ नहीं होगा, क्योंकि दर्द के बिना क्रिया होकर भी प्रमाद और कषाय के कारण असावधानी से बन्ध काटने के बदले बन्ध बढ़ाने वाली होगी।” ____ आचार्य प्रवर के समस्त प्रवचन जीवन को उन्नत बनाने वाले हैं। (११) गजेन्द्र व्याख्यान माला -पाँचवाँ भाग इसका प्रथम प्रकाशन 'गजेन्द्र व्याख्यान मुक्ता' के नाम से इन्दौर के सेठ श्री सुगनमल जी भण्डारी के द्वारा अपने सुपुत्र स्व. श्री गजेन्द्र सिंह जी भण्डारी की पावन स्मृति में जून १९८० में कराया गया था। गजेन्द्र व्याख्यान माला के इस भाग में सन् १९७८ में हुए इन्दौर चातुर्मास के २१ प्रवचनों का संकलन है। प्रवचनों के विषय स्वाध्याय, ज्ञान और भक्ति, आत्म जागरण, सद्आचार और सद्विचार, संयम, तप, बन्धन का मूल, आहार शुद्धि एवं आचार-शुद्धि, दोष-परिमार्जन, संत-समागम, विवेकपूर्ण-प्रवृत्ति, परिग्रह-निवृत्ति, वास्तविक त्याग, आध्यात्मिक ज्ञान और आध्यात्मिक शिक्षण, शास्त्रधारी सैनिक आदि हैं। आचार्य श्री ने प्रवचनों में इस बात को उभारा है कि आज लोगों का जीवन बाहर से टीप टाप दिखाई देता है, किन्तु भीतर से उनका जीवन सूखा-सूना है जिसे आध्यात्मिक रस और स्वाध्याय जैसे मार्गदर्शक की आवश्यकता है। आचार्य श्री ने इस बात को स्पष्ट किया है कि जीवन निर्वाह की शिक्षा पाया हुआ युवक मशीन के पुर्जे तो ठीक कर सकता है, किन्तु जीवननिर्माणकारी आध्यात्मिक शिक्षण के बिना वह अपना बिगाड़ा हुआ दिमाग ठीक नहीं कर सकता। समाज-सुधार के लिए एवं व्यक्ति-सुधार के लिए आध्यात्मिक ज्ञान एक अमोघ साधन है। एक प्रवचन में | आचार्य श्री कहते हैं कि अब ज्यादा भाषण देने का युग नहीं है, समय काम करने का है, युग बड़ी तेजी से आगे बढ़ | रहा है। कम बोलने और ज्यादा करने से ही समाज आगे बढ़ सकता है। समाज को जागृत कर आगे बढ़ाने की ओर आचार्य श्री ने संकेत करते हुए कहा है कि आज अलख जगाने वालों की आवश्यकता है। आत्मशक्ति के संबंध में आचार्य श्री बताते हैं कि आत्मा की शक्ति मन की शक्ति से कई गुनी अधिक होती है और मन की
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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