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________________ ७४३ चतुर्थ खण्ड : कृतित्व खण्ड कचरा तो हमें स्वयं को ही हटाना पड़ेगा।" स्वाध्याय के लिये प्रेरणा करते हुए कहा - "सबसे पहले विचारों में ज्ञान बल प्रवाहित होना चाहिये। ज्ञान बल प्राप्त होता है सत्संग से और स्वाध्याय से। आदमी को खाने के लिये समय मिलता है, कमाई के लिये अथवा आराम के लिये समय मिलता है, व्यवहार के लिये समय मिलता है, फिर स्वाध्याय के लिये समय क्यों नहीं मिलता। आज के दिमाग को ज्ञान चाहिये लेकिन तर्क के साथ, योग्यता के साथ मिलाया हुआ ज्ञान चाहिए। यह बिना स्वाध्याय के नहीं मिल सकता।" व्रत के सम्बन्ध में आचार्यप्रवर ने फरमाया - “व्रत में समय की कीमत नहीं, उसमें कीमत है चित्त की। चित्त | का मतलब है मन। मन कितना ऊँचा है, कितना विवेकशील है और कितना निर्मल है, मन की निर्मलता और | मनोवृत्तियों की उच्चता के अनुपात के अनुसार ही क्रिया का महत्त्व बढ़ता है।" (९) गजेन्द्र व्याख्यान माला - तीसरा भाग __यह भाग बालोतरा में सन् १९७६ में हुए चातुर्मास में पर्युषण के अवसर पर प्रदत्त सात प्रवचनों का संकलन | है। संवत्सरी से सम्बद्ध व्याख्यान को इसमें सम्मिलित नहीं किया गया, क्योंकि इस विषय पर सभी प्रमुख तथ्यों के साथ एक प्रवचन गजेन्द्र व्याख्यान माला के प्रथम भाग में उपलब्ध है। अध्यात्म-साधना से परिपूत एवं आत्मानुभूति से उद्भूत पतित पावनी पीयूष वाक् आचार्य श्री के प्रवचनों की विशेषता है । निराश एवं निष्कर्मण्य बने मानव की धमनियों में सम्यक् पुरुषार्थ का वेग उत्पन्न करने में आचार्यप्रवर की वाणी सक्षम दिखाई देती है। गजेन्द्र व्याख्यान माला के इस तीसरे भाग में सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र, सम्यक् तप और दान का हृदयग्राही सुन्दर प्रतिपादन हुआ है। व्याख्यानों में सहजता भी है और पैनापन भी। अपने एक प्रवचन में आचार्य श्री ने फरमाया है कि सच्चा जैन लक्ष्मी का दास नहीं, अपितु लक्ष्मी का पति होता है। धन कदापि तारने वाला नहीं, केवल धर्म ही तारने वाला है। अपने अन्य व्याख्यान में आचार्य श्री कहते हैं कि अमीर व्यक्ति दान आसानी से दे सकता है, किन्तु संयम | करना उसके लिए कठिन होता है। इसलिए दान तो ऊंचा है गरीब का और त्याग, तप, संयम करना ऊंचा है अमीर का। “तपस्या की सफलता में जिस प्रकार संयम सबल सहायक है उसी प्रकार प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य और | स्वाध्याय ये चार चौकीदार जिस साधक के पास होते हैं उसकी तपस्या की सफलता असंदिग्ध है।" सम्पादन गजसिंहजी राठौड़ और प्रेमराजजी बोगावत ने किया है तथा प्रकाशन सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल | जयपुर से किया गया है। इसका तीसरा संस्करण सद्य: प्रकाशित हुआ है। (१०) गजेन्द्र व्याख्यान माला - चतुर्थ भाग सन् १९७७ के अजमेर चातुर्मास में आचार्यप्रवर द्वारा फरमायी गयी अमृत-वाणी रूपी प्रवचन इस भाग में संकलित हैं। संपादन पंडित शशिकान्त जी झा ने किया है। प्रवचनों में धर्म-साधना, साधना से सिद्धि, त्याग का महत्त्व, समय कम और मंजिल दूर, आचार का महत्त्व, धर्म से उभय लोक कल्याण, आत्मोथान, वीतराग वचन का प्रभाव, वाणी की शक्ति, विश्वभूति समता के पथ पर प्रगति का शत्रु प्रमाद, अशांति का मूल क्रोध और लोभ, आत्मरोग और ज्ञान गुटिका, कर्म : दुःख का मूल, कषाय-विजय ही आत्म-विजय, असमाधि के मूल कारण से बचें,
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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