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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड की सी विभीषिका में बदल गया। उन्हें सम्पूर्ण प्रणय, सुख-वैभव और दाम्पत्य का नन्दन-कानन मृग-मरीचिका सा प्रतीत हुआ। कोख में नवजीवन का अमृत प्रसून पल रहा है, किन्तु सौभाग्य का कल्पवृक्ष धराशायी हो गया। रूपा देवी शोक विह्वल हो उठी। चिन्ताओं से आच्छन्न भविष्य को देखने की उसमें हिम्मत न रही। अनेक दिन उसके भाव शून्यावस्था में बीते । एक दिन गर्भस्थ शिशु के प्रभाव से उनकी चिन्ता ने चिन्तन का मोड़ लिया। वह सोचने लगी- “क्या इस संसार में एकमात्र मैं ही अभागिनी हूँ?" वह अनुभव करने लगी कि इस महामारी के ताण्डव ने एक नहीं अनेक घरों को उजाड़ा है, अगणित सुहागिनों के सिन्दूर को धूलिसात् किया है। अनेक माताओं की ममतामयी गोदें सूनी हो गई हैं। कई अबोध नन्हें बालक अनाथ हो गए हैं। उसे लगा-'यह संसार दुःख-द्वंद्वों से घिरा हुआ है। जिस प्रकार दिन के बाद रात और रात के बाद दिन का क्रम चलता रहता है, उसी प्रकार जन्म-मृत्यु, संयोग-वियोग और सुख-दुःख का चक्र गतिशील है। यह अवश्यम्भावी क्रम न कभी रुका है और न कभी रुकेगा।' इस प्रकार चिन्तन करते-करते रूपादेवी के हृदय में विशुद्ध परिणामों की विमल धारा प्रवाहित होने लगी। उन्होंने सोचा रोने, बिलबिलाने, व्यथित होने या विलाप करने से संसार के संयोग-वियोग के क्रम को रोका नहीं जा सकता। चिन्ता एवं विलाप दुःख को दूर नहीं करते, अपितु संघर्ष की शक्ति को घटाते हैं। ___ रूपादेवी ने संसार के इस सत्य को जान लिया कि जीवन अनित्य है, क्षण भंगुर है, इसका कोई भरोसा नहीं है। इस सत्य को जानने के साथ ही उनमें वैराग्य के भाव जागृत हो गए। मन हुआ दीक्षा ले ली जाए। यही सही उपाय है 'न वैराग्यात् परं भाग्यम्'-वैराग्य से बढ़कर कोई सौभाग्य नहीं। मौसी जी फूलांजी एवं भाभीजी (केवलचन्द जी के बड़े भ्राता रामूजी की धर्मपत्नी) ने भी यही मार्ग अपनाया था। वैराग्य की भावना ज्यों-ज्यों दृढ़ होती गई त्यों-त्यों रूपादेवी के दुःख के घने बादल छंटते गए। उनमें एक हिम्मत आई जीवन को सही मार्ग पर लगाने की। वैराग्य में बड़ी शक्ति है, किन्तु इस समय, जब दो माह पश्चात् वह माँ बनने वाली है, श्रमणी धर्म को अंगीकार नहीं किया जा सकता। उनका अब प्रथम कर्त्तव्य सन्तति को जन्म देना एवं उसका कुछ काल तक पालन-पोषण करना था। सासू नौज्यांबाई की अभिलाषा का भी ध्यान रखना था। प्रसवकाल सन्निकट जानकर पुत्री रूपादेवी को पिता श्री गिरधारी लालजी मुणोत अपने घर ले आये। मुणोत साहब का भवन निमाज ठिकाने के पीपाड़ नगरस्थ कोट के पीछे के भाग में अवस्थित था। रूपादेवी के यहाँ आने से उनका बाहरी वातावरण भी बदल गया। ससुराल में सासू नौज्यांबाई को देखकर पति केवलचन्द जी की दारुण स्मृति कोमल चित्त को आच्छादित कर देती थी, तो नौज्यांबाई भी बहू को देखकर पुत्र की स्मृति से शोकाकुल हो उठती थी। रूपादेवी ने परिस्थितियों को देखकर अब यह मानस बना लिया था कि प्रसवकाल के पश्चात् भी कुछ काल तक शिशु के पालन पोषण हेतु उसका गृहस्थ जीवन में रहना आवश्यक होगा। मातृ-कर्त्तव्य का निर्वहन करने हेतु रूपादेवी समुचित आहार-विहार का ध्यान रखती हुई बड़ी सावधानी से गर्भस्थ शिशु का सुचारु रूपेण संवर्धन करने लगी। वह अपना अधिकांश समय नमस्कार मंत्र के जाप एवं धर्म-ध्यान में व्यतीत करने लगी। इसका गर्भस्थ शिशु पर गहरा प्रभाव पड़ा। प्राचीन काल में आदर्श माता मदालसा ने अपने पुत्रों को गर्भावस्था में ही प्रभु भक्ति का पाठ पढ़ाया था। गर्भावस्था के व्यवहार एवं शिक्षा का गर्भस्थ शिशु पर अवश्य ही प्रभाव पड़ता है। सुभद्रा के गर्भस्थ बालक अभिमन्यु पर पिता अर्जुन के द्वारा सिखाई गई युद्ध विद्या का प्रभाव इसका स्पष्ट प्रमाण है। यहाँ माता के वैराग्य का प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर एवं पुण्यशाली गर्भस्थ शिशु के पूर्व संस्कारों का प्रभाव माता पर फलित हो रहा
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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