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________________ (तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड ६७५ व्यक्तित्व एवं गुणों से इतने प्रभावित थे कि पत्राचार के दौरान आपको ‘पुरिसवरगंधहत्थीणं' से सम्बोधित करते थे। उन्हीं आचार्य श्री ने उस समय गुरुदेव को आत्मीयतावश सहज मिलन एवं पंजाब क्षेत्र में धर्मप्रचार की दृष्टि से उधर आने हेतु आग्रह किया। अब इधर तो गुरुदेव पर स्वामी श्री अमरचन्द जी म.सा. की सेवा का दायित्व था तो उधर एक ज्ञानी सन्त से मिलन और पंजाब का क्षेत्र फरसने का प्रबल आकर्षण । किन्तु गुरुदेव तो थे वचन के धनी, दृढ़ सेवाव्रती। बस, आपने उस अवसर और आकर्षण को गौण कर सेवा को ही प्राथमिकता दी और स्वामी जी को धीरे-धीरे जयपुर तक ले आए। फिर पूरे एक वर्ष तक (उनके देहावसान तक) आपने उनकी पूर्ण सेवा-सुश्रूषा की। इस प्रकार आपने अपने आज्ञानुवर्ती सन्त की सेवा का उत्कृष्ट आदर्श भी प्रस्तुत किया। (२) पूज्य श्री जयमल जी म.सा. की परम्परा के वयोवृद्ध स्वामी श्री चौथमल जी म.सा. संवत् २००९ में जोधपुर शहर में विराजित थे। आचार्य श्री भी जोधपुर में ही थे। आपका चातुर्मास नागौर में होना तय हुआ था। अत: आपने वहाँ पहुँचने हेतु आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष में जोधपुर से प्रस्थान कर महामन्दिर पधार गये थे। उसी समय श्री चौथमल जी म.सा. ने संथारे के प्रत्याख्यान कर लिए और संथारा पूर्ण होने तक चरितनायक पूज्यश्री के सान्निध्य की इच्छा प्रकट की। चातुर्मास प्रारम्भ का समय नजदीक होने के बावजूद भी पुरातन मधुर संबंधों की अक्षुण्णता और मुनि श्री के प्रति सेवाभाव के लक्ष्य से नागौर विहार स्थगित कर, आप पुन: जोधपुर शहर में पधारे । यहाँ आपने वैराग्य एवं समभाव को पुष्ट करने वाले स्तोत्र, भजन, पद आदि सुनाकर श्री चौथमलजी म.सा. के मनोबल एवं आत्मबल को सुदृढ किया। इसी समय चरितनायक ने 'मैं हूँ उस नगरी का भूप' आदि वैराग्यप्रद पदों की रचना की। १३ दिनों में संथारा पूर्ण होने के पश्चात् आपने आषाढ शुक्ला ४ को नागौर की ओर उग्र विहार किया एवं आषाढ शुक्ला १३ को भीषण तपती हुई दुपहरी में ३ बजे नागौर में प्रवेश किया। (३) रत्नवंश के वरिष्ठ एवं वयोवृद्ध बाबाजी श्री सुजानमल जी म.सा. एवं आचार्य श्री के मध्य मात्र प्रगाढ स्नेह ही नहीं वरन् विनय की पारस्परिक आदर्श भावना भी थी। दीक्षाकाल एवं पद के आधार पर दोनों ही एक दूसरे के प्रति विनयवृत्ति रखते थे। बाबाजी म.सा. जब अपने जोधपुर स्थिरवास के समय अत्यन्त अस्वस्थ हो गये तो आपने आचार्य श्री के सामीप्य की आकांक्षा प्रकट की और सेवाव्रती आचार्य देव ने भी उनकी इच्छा को पूर्ण सम्मान देते हुये उनके देवलोक होने तक उनके निकट रहकर उनकी पूर्ण सेवा की। (४) आचार्यप्रवर चातुर्मासार्थ मेड़ता नगरी में विराजित थे। उसी दौरान आपको यह समाचार मिले कि कुचेरा में स्वामी जी श्री रावतमल जी म.सा. के संत श्री भेरूमल जी म.सा. का देहावसान हो गया। उस समय कुचेरा में दो ही संत थे और उनमें से भी एक के दिवंगत हो जाने से वयोवृद्ध स्थविर श्री रावतमलजी म.सा. एकाकी रह गये थे। ऐसे समय में स्वामी श्री रावतमल जी म.सा. की वृद्धावस्था एवं एकाकीपन को दृष्टिगत रखते हुए अपने संतों को शीघ्र ही उनकी सेवार्थ विहार करा दिया। (यह बात और है कि बाद में जब यह समाचार मिले कि जयगच्छीय अन्य संत उनकी सेवार्थ पधार रहे हैं तो फिर अपने सन्तों की वहाँ आवश्यकता न देखते हुये आपने उन्हें पुन: अपने पास बुला लिया।) अपने संतों को भेजने का निर्णय निश्चय ही आपकी उत्कृष्ट सेवाभावना, सरलता व स्नेहभाव का अनुकरणीय उदाहरण है। पूज्य गुरूदेव की कभी यह अभिलाषा नहीं रही कि उनके गुणगान में कुछ लिखा जाए। वे तो गुणगान की अपेक्षा व्यक्ति के आध्यात्मिक - उन्नयन को ही महत्त्व देते थे। यह तथ्य श्रद्धेय श्री गौतम मुनिजी म.सा. के
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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