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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
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आनन्द ऋषि जी म.सा को श्रमण-संघ के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया तो युवाचार्य पद के लिये पूज्यश्री हस्ती का नाम प्रस्तावित किया गया।
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अनेक श्रमण-दिग्गजों ने आपश्री के अगाध आगम-ज्ञान, आपकी दिव्य-भव्य-साधना, आपके जन-कल्याणी स्वभाव की ओर संकेत करते हुए आपको सिद्धान्तप्रिय, अनुशासनप्रिय एवं आचारनिष्ठ बताते हुए युवाचार्य पद के लिए प्रस्तावित आपश्री के नाम को समर्थन दिया और आपकी सहमति मांगी। चरितनायक ने तब बहुत ही विनीत स्वर में इसके लिए इन्कार कर दिया। इस पर अनेक अधिकारी संतों ने आपसे आग्रहपूर्वक कहा कि जब आप सर्वथा सक्षम हैं इन्कार क्यों ? उन्होंने रत्नवंशीय वरिष्ठ संत श्री लक्ष्मीचंद जी म.सा. को भी कहा कि वे चरितनायक को युवाचार्य पद के लिये तैयार करें। पूज्यवर के प्रमुख भक्त राजस्थान उच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री इन्द्रनाथ जी मोदी से भी कहा गया कि वे भी चरितनायक से युवाचार्य पद के लिये निवेदन करें । किन्तु आपने विनम्रता एवं दृढतापूर्वक उस गौरवपूर्ण पद को अस्वीकार कर दिया । सम्भवतः उन्हें भविष्य दिखाई
रहा था ।
गेहुंआ वर्ण व छोटे कद के बावजूद आचार्यप्रवर के मुख-मण्डल पर उनकी उत्कृष्ट - साधना की ऐसी दिव्य आभा चमकती थी कि दर्शनार्थी भाई- बहनों के नेत्र उन्हें घंटों निहारने पर भी अतृप्त से ही रह जाते थे । शान्त सौम्य मुखाकृति पर अपूर्व आनन्द एवं संतोष की कांति ! इच्छा होती थी कि वक्त वहीं ठहर जाये और आकृति नेत्रों से कभी ओझल न हो ।
कई बार जब आगन्तुकों की भीड़ अधिक होने पर उन्हें शीघ्र दर्शन कर आगे बढ़ जाने को कहना पड़ता तो भी गुरु भगवन्त के चेहरे पर चमकते तेज में वे इस तरह खो जाते कि आदेश को अनसुना करके वहीं खड़े रहते । एक मात्र यही कामना लिये कि कुछ घड़ी और इस अपूर्व आनन्द की प्राप्ति कर लें । इसी संदर्भ में गुरुदेव के अनन्य भक्त जयपुर के सुप्रसिद्ध जौहरी सुश्रावक श्रीमान् पूनमचंद जी बडेर की अभिव्यक्ति साधारण शब्दों में, किन्तु गहन भावों के कारण हृदय को छू जाती है। स्वयं उन्हीं के शब्दों में “ आचार्य प्रवर की सौम्य मूर्ति नै तो बार - बार देख ने भी जीव कोनी धापे । अठा तक कि मैं तो कई बार सामायिक लेणों भी भूल जाऊँ ।”
गुरुदेव के जीवन में एक नहीं, अनेक ऐसे प्रसंग दृष्टिगत होते हैं जब आपने अन्य संतों की रुग्णावस्था या अन्तिम समय में अपनी सेवा-भावना का उत्कृष्ट व अनुकरणीय परिचय दिया। उनमें से कुछ प्रसंगों का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है -
(१) स्वामी श्री भोजराज जी म.सा. एक उत्तम सेवाभावी एवं ख्यातिप्राप्त रत्नवंशीय सन्त थे । अपने अंतिम समय में उन्होंने पूज्य गुरुदेव श्री हस्तीमलजी म.सा. को स्वामी श्री अमरचन्द जी म.सा. के सम्बन्ध में भोलावण देते हुए यह वचन लिया कि गुरुदेव श्री हस्तीमलजी म.सा. श्री अमरचन्द जी म.सा. की पूरी तरह सार संभाल करते रहेंगे । गुरुदेव तो वचन के पक्के धनी थे। बस आपने स्वामी श्री अमरचन्द जी म.सा. की सेवा सुश्रूषा का पूरा दायित्व अपने ऊपर ले लिया । अपने अन्तिम दिनों में दिल्ली प्रवास के दौरान स्वामीजी कैंसर जैसी भयंकर व्याधि से ग्रस्त हो गये तो गुरुदेव स्वयं उनकी सेवा में तत्पर हो गये। उन्हें साथ लेकर शनैःशनैः पुनः जयपुर की ओर विहार करने
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का लक्ष्य बनाया ।
ठीक इसी समय श्रमणसंघीय तत्कालीन आचार्य श्री आत्माराम जी म.सा. पंजाब के लुधियाना क्षेत्र में विराजित थे । जहाँ आपकी विद्वत्ता व आगमज्ञान से गुरुदेव स्वयं प्रभावित थे, वहीं आचार्य श्री आत्माराम जी म.सा. आपके