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________________ ६४८ wwanmmm.martamannrn नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं अनजान भाई ने एक सूना मकान बताया। वह मकान वर्षों से बंद रहता था । कोई भी गृहस्थ उसमें प्रवेश करते भी डरता था। रात्रि में तथा कभी-कभी दिन में भी उस मकान से डरावनी आवाजें आती रहती थी। लाल हवेली के नाम से प्रसिद्ध भूतहा हवेली अन्दर से डरावनी ही थी। पर आचार्य श्री तो आज्ञा लेकर उसमें ठहर गये। थोड़ी ही देर में जब श्रावकों को ज्ञात हुआ तो वे दौड़े दौड़े आये तथा वहाँ ठहरने के लिये मना करने लगे। पर आचार्य श्री ! ने कहा कि आप कोई मत घबराओ। मेरा तथा किसी का कुछ भी अनिष्ट नहीं होगा। दूसरे दिन प्रातः भक्तों ने | आचार्य श्री के तथा सब संतों के सकुशलता में दर्शन किये तथा रात्रि में क्या हुआ, पूछने लगे। आचार्य श्री ने मंद-मंद मुस्कान बिखेरते हुए फरमाया कि सब आनन्द है तथा यहाँ रहने वाले को घबराने की जरूरत नहीं है। तब से लेकर आज तक भी उस हवेली में रहने वाले निर्भय रहते हैं, किसी प्रकार का कोई विक्षेप अब वहाँ सदा के लिये | मिट गया है। यह बात बड़ी रीया के जैन ही नहीं अनेक पुराने इतर समाज के लोग भी कहते हैं। (iv) सिद्ध योगी -आचार्य भगवन्त की पावन सन्निधि में संवत् २०४० में जयपुर वर्षावास के बाद किशनगढ़ की ओर विहार हुआ। मैं वर्तमान आचार्य श्री हीराचन्द्र जी म.सा. के साथ था। जयपुर से चलकर बीच में दूदू से १२ किमी दूर पालुखुर्द पहुंचे तो रात्रि में मुझे अचानक पेट में तीव्र दर्द हुआ। दर्द बढ़ता ही जा रहा था किसी तरह से दूदू पहुंचे। वहाँ सामान्य उपचार किया, किन्तु लाभ नहीं हुआ। इलाज चलता रहा। करीब सप्ताह भर बाद सुप्रसिद्ध विशेषज्ञ डा.एस.आरमेहता आये तथा फौरन उन्होंने निदान किया कि एपेंडिक्स का आपरेशन करवाना पड़ेगा, अतः या तो जयपुर लौटें अथवा अजमेर में आपरेशन संभव होगा। आपरेशन के नाम से ही मुझे घबराहट हुई। २-४ दिनों में ही आचार्य भगवन्त भी दूदू पधार गये। मैंने अर्ज की –“भगवन्त आप ही मेरा उपचार करावें । दर्द की स्थिति में मैं कब तो अजमेर पहुंचूँगा या कब जयपुर लौटूंगा।" ऐसी स्थिति में एक दिन मैं गुरुदेव के समक्ष रो पड़ा। भगवन्त ने प्यार से मुझे पास सुलाया (दिन में प्रातः ९ बजे) तथा मन ही मन कुछ स्तवन जैसा गुनगुनाते हुए मेरे दर्द वाले स्थान पर धीरे-धीरे सहलाते रहे। करीब आधा घंटा बाद ही मैंने अनुभव किया कि दर्द काफूर हो चुका है तथा मैं अपने को पूर्ण स्वस्थ अनुभव करने लगा। उसके बाद न आपरेशन हुआ न ही उस प्रकार की पीड़ा ही हुई। ऐसा था भगवन्त का करुणापूर्ण हृदय तथा ऐसी थी उनकी प्रकृष्ट साधना। (v) उदारता - श्रमण संघ से पृथक् होने के बाद आचार्य भगवन्त का २०२८ में पहली बार जोधपुर में वर्षावास हो रहा था। उस वक्त कुछ लोगों ने जोधपुर में ही सिंहपोल स्थानक में अन्य संतों का वर्षावास करवाया। हालांकि बाद में वे भी श्रमणसंघ में नहीं रह पाये । वातावरण कुछ कुछ तनाव एवं असमंजस जैसा था। निश्चित | समय पर आचार्य श्री जोधपुर पधार गये। दूसरे संत भी वर्षावास हेतु पधार गये। आचार्य भगवन्त ने जोधपुर में प्रवेश के पहले ही प्रवचन में फरमाया कि जिस-जिस भाई के जो स्थान समीप हो, वह वहीं जाकर धर्म ध्यान, सामायिक एवं व्याख्यान श्रवण कर लाभ लेवे। आचार्यश्री के वर्षावास स्थल घोड़ों के चौक से नवचौकिया, पचेटिया, गूंदी का मौहल्ला पर्याप्त दूर था तथा सिंहपोल से ये स्थान अपेक्षाकृत समीप थे। आचार्य श्री का आशय था कि लंबी दूरी से यहाँ आकर एक सामायिक कर पाओ तथा आधा अधूरा व्याख्यान सुन पाओ इसकी अपेक्षा समीप के स्थान पर अधिक सामायिक एवं व्याख्यान का पूरा लाभ लेवे। दरअसल में आचार्य भगवन्त अत्यन्त उदार एवं सुलझे दृष्टिकोण के धनी थे। वे चाहते तो अपने भक्तों को एक इशारे में ही दूसरे स्थान की वर्जना कर देते, पर महापुरुषों के विराट् मन की बात ही निराली होती है। ___ (vi) कलह निवारण - आचार्य भगवन्त का संवत् २०२३ में अहमदाबाद में वर्षावास था। वहाँ से (चातुर्मास के पश्चात् २०२४ में जयपुर में वर्षावास था। इस बीच विहारक्रम में आचार्य भगवन्त फतेहगढ़ पधारे।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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