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________________ अध्यात्म-योगी तपोमूर्ति . श्री जवाहरलाल वाघमार जैन जगत नित कर रहा, अविरल जिन पर नाज। त्याग तपस्या के धनी, श्री हस्तीमलजी महाराज ॥ चर्चा जिनकी देश में, गांव गली घर आज । जन-जन के अन्तर बसे, श्री हस्तीमलजी महाराज ।। सबके बन करके रहे, माने सकल समाज। है ! धन्य धन्य तप मूर्ति, श्री हस्तीमलजी महाराज ।। जग को नित ऐसे लगे, तारण तिरण जहाज। सबके मन को भा गये, श्री हस्तीमलजी महाराज ।। अल्प आय में आपने, सुन मन की आवाज । महावीर पथ पर चले, श्री हस्तीमलजी महाराज ।। माहित सबको कर गय, जीवन के अन्दाज । स्मृति जिनकी शेष, ऐसे हस्तीमलजी महाराज ।। श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन रत्नवंश के सप्तम पट्टधर, सामायिक स्वाध्याय के प्रबल प्रेरक, इतिहास मार्तण्ड | अखण्ड बाल-ब्रह्मचारी , चारित्र चूड़ामणि , अध्यात्म योगी, परम पूज्य आचार्य प्रवर १००८ श्री हस्तीमलजी म.सा. के चरण कमलों में रहने का असीम सौभाग्य मुझे लघु वय से ही प्राप्त हुआ। वैसे, मैं उनकी जन्मस्थली पीपाड़ के पास कोसाना (राजस्थान) का निवासी हूँ। जीवन के लिये, आत्म-अभ्युदय के लिये, ज्ञानार्जन के लिये स्वाध्याय परम आवश्यक है - इस सत्य को मैंने उन्हीं के सान्निध्य में रहकर समझा। उनकी दूरदर्शिता और वाणी की सत्यता के प्रति वैसे तो हजारों लाखों व्यक्ति नतमस्तक हैं, मैंने स्वयं भी अपने जीवन में उनकी वाणी की सत्यता और भविष्य द्रष्टा होने की विशेषता के अनेक बार प्रत्यक्ष दर्शन किये हैं। ___संवत् २०४६ में हमारे ग्राम कोसाना में ही आचार्य प्रवर का चातुर्मास था। हमेशा की तरह सपरिवार मैं भी वहीं था। नित्य-नियम के अनुसार प्रात: प्रार्थना में सम्मिलित होता, फिर दर्शन-प्रवचन का लाभ लेता। एक दिन प्रात: आचार्यप्रवर ने मुझे अपने पास बुलाकर पूछा –“तुम्हारे मन की क्या अभिलाषा है?" मैं कुछ असमंजस में पड़ गया, यकायक कुछ प्रत्युत्तर नहीं दे सका। यह बात मैनें मेरे ससुर महोदय श्रीमान् अमरचन्द जी सा छाजेड़, राजस्थान में | मेवड़ा (जि. अजमेर) निवासी को जो उन दिनों कोसाना आये हुये थे, बतायी। उन्होंने कहा, आचार्य प्रवर ने कुछ | विशेष प्रयोजन से ही आपसे यह प्रश्न किया होगा। मैंने इस बात पर गौर किया और मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे वे मुझे तपश्चर्या के मार्ग पर बढ़ने के लिये प्रेरित कर रहे हों। अतएव दूसरे दिन प्रार्थना के बाद मैंने उपवास के | पच्चक्खाण ले लिये। बड़ी शान्ति से वह दिन बीता। दूसरे दिन मैंने बेला पच्चक्ख लिया। फिर तीसरे दिन मैंने बड़े उत्साह से तेला भी पच्चक्ख लिया। उस वक्त आचार्य प्रवर ने मुझे गौर से देखा और मंद मंद मुस्कुराते हुये पूछा - “आगे भी भाव हैं क्या?" मेरे मुँह से अनायास ही निकला - "गुरुदेव आपका आशीर्वाद होगा तो अठाई भी पूरी कर लूँगा।" हालांकि उन दिनों तक मैंने उपवास या बेले से आगे की तपस्या कभी की ही नहीं थी। यह समाचार जब मेरी धर्मपत्नी श्रीमती शान्तिकंवर तक पहुँचे कि मैं अठाई करने की ठान चुका हूँ तो वे भी आचार्य श्री के दर्शनार्थ पहुँची और बड़ी अनुनय विनति के साथ पाँच उपवास पच्चक्खाने की प्रार्थना करने लगी,
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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