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________________ मेरे प्रेरणा स्रोत आचार्य श्री श्री रणजीतसिंह कूमट बाल्यकाल और विद्यार्थी जीवन में हमारी मूरत को कई लोग घड़ते हैं और जगह-जगह पर छैनी हथौड़े से एक शक्ल सूरत प्रदान करते हैं। बहुत छोटी अवस्था में माता-पिता यह कार्य करते हैं। जब बड़े होते हैं तो स्कूल में अध्यापक और धर्माचार्य हमारे जीवन की मूरत को घड़ते हैं। ऐसे ही थे आचार्यप्रवर श्री हस्तीमल जी महाराज जिनकी प्रेरणा से मेरी मूरत घड़ी गई । आचार्यप्रवर के कई प्रेरणाप्रद प्रसंग हैं और उन सबको लिपिबद्ध करना एक लेख में सम्भव नहीं, लेकिन कुछ बातें ऐसी रहीं जिन्होंने मुझ में लेखन शैली का एवं लिखने की प्रवृत्ति का प्रादुर्भाव किया। जब मैं दिल्ली में अध्ययन कर रहा था उस वक्त आचार्य श्री का चातुर्मास दिल्ली में हुआ और सप्ताह में एक या दो बार जाने का प्रसंग बन जाता था । जब भी मैं जाता आचार्य श्री पूछते, 'कुछ पढ़ता है, कुछ लिखता है' मैं कहता, 'पढ़ता तो हूँ, | लेकिन लिखना नहीं आता ।' मृदु रूप से हँसते और कहते, 'प्रयास करो। स्वाध्याय धर्म का मूल अंग है और स्वाध्याय में पढ़ने के साथ लिखना भी आवश्यक है ।' दो-तीन बार पूछने पर भी कुछ नहीं लिख पाया और | असमर्थता जाहिर की तो उन्होंने कहा कि तुम अंग्रेजी में कोई अच्छा लेख पढ़ते हो तो उसका ही हिन्दी रूपान्तर कर दो । 'धर्मयुग' या अन्य अखबार में लेख लिखे जाते हैं उनको भी संक्षेप कर लेख लिख सकते हो। बार-बार उनकी | प्रेरणा और पृच्छना से प्रेरित हो पहला लेख 'जिनवाणी' में छपने भेज दिया । लेख छप गया । आनन्द विभोर हुआ | और लिखने की प्रेरणा बनती रही और कुछ न कुछ लिखता रहा । जब भी आचार्य श्री मिलते, यही पूछते – क्या लिखा ? क्या पढ़ा ? एक बार मैंने कहा कि समय नहीं मिलता, तो कहा कि सामायिक में भी यह कार्य कर सकते हो और रविवार को एक अतिरिक्त सामायिक कर पढ़ने और लिखने का कार्य कर सकते हो । लिखते-लिखते ३० / ४० लेख एकत्रित हो गये तो उन्हें पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया, जिसका शीर्षक था 'मुझे मोक्ष नहीं चाहिए।' यह शीर्षक बड़ा अजीब लगा, लेकिन पढ़ने वालों ने मेरे इस मत से सहमति व्यक्त की कि जीवन वर्तमान | के लिए है न कि भविष्य के लिए। यदि वर्तमान ही नहीं सुधरा तो भविष्य कैसे सुधरेगा । १९७८ में विपश्यना ध्यान में बैठा। उसके बारे में आचार्यश्री ने बहुत बातें पूछी। उनको नई नहीं लगी, | क्योंकि लगता था कि वे स्वयं इसको प्राप्त कर चुके थे । आचारांग सूत्र की कुछ गाथाओं के बारे में मुझे कुछ शंका हुई और पूछने गया तो उन्होंने निःसंकोच कहा, 'जो कुछ विपश्यना में सीखा-पढ़ा है वही उन गाथाओं का अर्थ है ।' स्वाध्याय, ध्यान और लेखन पर हमेशा उन्होंने जोर दिया। जब भी मैं दर्शनार्थ गया तो स्वयं भी किसी पुस्तक को लिखने में लगे रहते थे। जैन धर्म के इतिहास के चार बड़े ग्रन्थ उनके स्वयं के शोध के आधार पर लिखे गये हैं। अपने लिखने और चिन्तन के कार्य में वे इतने तन्मय रहते थे कि दर्शनार्थी बार-बार मांगलिक सुनाने के लिए कहते तो उन्हें एकाग्रता में व्यवधान महसूस होता था । आचार्यश्री के गुणगान के लिए सभी शब्द कम पड़ जाते हैं। उन्होंने मेरे जीवन पर जो उपकार किया है उससे मैं कभी उऋण नहीं हो सकता। जीवन में सामायिक, समता, स्वाध्याय आदि के गुण उन्हीं की प्रेरणा के सुफल हैं और उन्हीं से जीवन में शान्ति अनुभव होती है। २९ अप्रैल, १९९८ A-201, दशरथ मार्ग, हनुमान नगर, जयपुर
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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