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________________ आध्यात्मिक चुम्बकीय शक्ति के स्रोत . श्री भंवरलाल बाथग आचार्य भगवन्त श्री हस्तीमलजी म.सा. के दर्शनों का प्रथम सौभाग्य मुझे तब मिला जब आचार्य श्री संवत् २००१ के चातुर्मासार्थ जयपुर आ रहे थे। मैं उस समय अजमेर रोड़ पर भांकरोटा (जयपुर से १२ किमी) तक सामने गया था। उस दिन गुरुदेव आचार्य श्री की चरणरज अपने शीष क्या चढ़ाई, मानो जादू सा हो गया। चौबीसों घण्टे गुरुदेव के सान्निध्य में रहने का मन करने लगा। आचार्य श्री की मेरे पर बहुत कृपा थी। जयपुर के इस चातुर्मास में मैं प्रायः स्थानक में ही रहता था। मात्र दोनों समय भोजन के लिए घर जाता था। प्रातः एवं सायंकाल गुरुदेव के साथ ही जंगल (फतहटीबा) जाता था। दोपहर में गुरुदेव के द्वारा बताया गया लेखन कार्य करता था। ५६ वर्ष बीत जाने के बाद भी वह चातुर्मास मेरी आँखों के सामने चित्रित हो जाता है। इसके पश्चात् मैं जहाँ कहीं भी गुरुदेव के दर्शनों हेतु गया, प्रायः उनकी सेवा में ही अधिकांश समय व्यतीत करता था। गुरुदेव के प्रति जो श्रद्धाभाव पैदा हुआ वह एकदम सहज था। इसमें पूर्व संस्कार कारण थे, या यह कोई जादू था, अथवा उनमें कोई अदृश्य शक्ति थी जो अपनी ओर खींचती थी। _आचार्य भगवन्त का विक्रम संवत् २०३० का वर्षावास जयपुर में था। श्री खरतर गच्छ के संत श्री अस्थिर मुनि जी म.सा. का चातुर्मास भी जयपुर में ही था। उनके श्रावकों ने ३०० सामूहिक तेले का तप किया। तेले की तपस्या के दिन प्रत्याख्यान करने हेतु सभी भाई-बहन श्री अस्थिर मुनि जी म.सा.की अगुवाई में आचार्य श्री के पास लालभवन में आए। सभी तपस्वी श्रावक-श्राविकाओं को आचार्य श्री ने तेले की तपस्या का प्रत्याख्यान कराया। उस समय श्री अस्थिर मुनि जी आचार्य श्री के पाट के नीचे चरणों में बिराजे । श्रावकों ने पाट पर बैठने का आग्रह किया तो उन्होंने कहा-“मेरी तो जगह यहाँ ही है।” दो सम्प्रदायों का पारस्परिक सौहार्द एवं मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के द्वारा आचार्यश्री के प्रति आदरभावना का दृश्य देखने योग्य था। उस वर्षावास में मासखमण व अठाई आदि तपस्याएँ बड़ी मात्रा में हुई। विक्रम संवत् २०३८ में जयपुर नगर में श्री प्रेममनि जी म.सा. (आचार्य श्री नानालाल जी म.सा. की परम्परा के संत) ठाणा ३ का चातुर्मास था। उन्होंने व्याख्यान में एक दिन फरमाया –“मैंने आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा. के | जब दर्शन किए तो उन्होंने मुझे देखकर कहा था तुम जल्दी ही श्रमण दीक्षा लोगे और मुझे आश्चर्य है कि मेरी दीक्षा जल्दी ही हो गई। जयपुर से कुछ लोग टोंक जिला के मालपुरा स्थित दादाबाड़ी में दादागुरु के दर्शनार्थ गए हुए थे। वहां पर | विराजित संतों ने आगन्तुकों से पूछा कि आप लोग कहाँ से आए हैं? जवाब दिया-जयपुर से । जयपुर का नाम लेते ही वे संत कहने लगे 'चिंतामणि रत्न हाथ में होते हुए भी इधर-उधर भटक रहे हो।' संतों का संकेत आचार्य श्री की ओर था। आचार्य भगवन्त श्री हस्तीमलजी म.सा. का वर्षावास उस समय जयपुर में ही था। आचार्य श्री के चरणों में पद्म का चिह्न अंकित था। इसकी उन संतों को जानकारी थी। उन्होंने कहा-जाकर आचार्य श्री के पैर में शीश झुकाओ और अपने भाग्य को सराहो।। ___ अजमेर के अंतिम वर्षावास के पश्चात् गुरुदेव जब जयपुर पधारे तब मोतीडूंगरी रोड पर ललवानी जी के
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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