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(तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
करुणा के सागर, भक्तों के भगवान को अपने समक्ष समुपस्थित पाकर पिताजी ने लेटे हुए ही गुरुदेव को वंदना की और अश्रु भरी आंखों से निहारते हुए निवेदन किया “गुरुदेव ! अब अंत समय निकट जान पड़ता है, आप मुझे संथारा करवा दीजिये।”
यह सुनकर गुरुदेव के मुखाग्र से जो शब्द प्रस्फुटित हुए वे हम सबके लिए आनंदकारी और आश्चर्यजनक थे।
गुरुदेव ने फरमाया “भोलिया जीव तूं क्युं परवाह करे, आपां तो आगे लारे ई जावांला" । इन शब्दों ने दिव्य औषधि का कार्य किया। पिताजी शनैः शनैः स्वस्थ हो गए। यह बात पिताजी के स्वर्गवास के लगभग १५ वर्ष पूर्व की थी।
काल-चक्र चलता रहा, आखिर २१ अप्रेल १९९१ को परमपूज्य गुरुदेव देवलोक पधारे, दूसरे ही दिन पिताजी ने अपनी क्षीण देह त्याग दी।
_ विधि की विचित्रता देखिए कि दोनों की अंतिम यात्रा एक ही दिन निकली। • गुरुदेव का अतिशय
___ आचार्य श्री एक बार मेड़ता विराज रहे थे। तत्कालीन उप जिलाधीश श्री महावीर प्रसादजी शर्मा मेरे मित्र थे। मैंने उन्हें निवेदन किया कि आचार्य श्री भारत की एक विभूति हैं व मेडता पधारे हुए हैं, आप उनके दर्शन करें। | उन्होने तुरंत स्वीकृति दी और कहा-“कब चलना है ?” मैंने उन्हें ४ बजे का समय दिया।
ठीक समय पर हम आचार्य श्री की सेवा में पहंचे। मैंने उप जिलाधीश महोदय का परिचय कराया। आचार्य श्री ने उन्हें उपदेश दिया -“अधिकार पाया है तो सबकी भलाई करो, परोपकार करो, घट में दया रखो हिंसा का परित्याग करो।" यह उपदेश देते हुए आचार्य श्री ने फरमाया-“यही बात मैंने दामोदर को कही है"- (स्मरणीय है उस समय आचार्य दामोदरजी हमारे नागौर जिले के विधायक थे।) यह सब बात हो ही रही थी कि इतने में विधायक दामोदर जी की कार स्थानक के सामने रुकी और दामोदरजी को आते देख कर उप जिलाधीश महोदय अवाक् रह गये। उपस्थित सभी लोग यह देखकर आश्चर्य चकित रह गये । यह था गुरुदेव का अतिशय ।
-मेड़ता सिटी, राजस्थान