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तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
५६७ कर परा विद्या की प्राप्ति कराता है। मुझे श्री गुरु गीता का यह श्लोक अत्यन्त प्रिय है
जानस्वरूप निजभावयनमानन्दमानन्टकर प्रसन्नम् ।
योगीन्द्रीड्यं भवरागवेध श्रीमदग नित्यपहं नमामि ।।५१४।। पूज्य आचार्य ऐसे ही ज्ञान स्वरूप, निज आत्म-बोध से संपन्न, आनन्द की पीयूष धारा में अवगाहन करने || वाले योगीन्द्र - पूजनीय और भव रोग की संजीवनी देने वाले वैद्य थे। गुरु शब्द का व्युत्पत्तिपरक तत्त्वार्थ समझाते || हुए पं. केशव देव शर्मा ने लिखा है कि 'ग' शब्दे क्यादि और 'गृ' निगरणे तुदादि गण की धातु को 'कुग्रारुच्च' इस उणादि सूत्र से कु प्रत्यय और उकारान्तादेश होने पर 'उरण रपरः' सूत्र से वह रपरक हुआ। फिर प्रातिपदिक संज्ञा के अनन्तर 'सु' विभक्ति से 'गुरु' बनता है। गुरु में गकार सिद्धिदाता, रेफ पापनाशक और उ कार का अर्थ शम्भु है।। (कल्याण योगांक) । ज्योतिष शास्त्र में बृहस्पति को गुरु कहा गया है। एक अन्य मत के अनुसार 'गु' अंधकार का द्योतक है और 'रु' प्रकाश का। गुरु अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है - 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' । 'गिरत्यज्ञानमिति गुरुः' । 'यद्वा गीयते स्तूयते देवगन्धर्वादिभिरिति गुरु:' एवं 'गृणाति उपदिशति धर्ममिति गुरु:।' तात्पर्य यह है कि गुरु धर्म के उपदेश से अज्ञानान्धकार को नष्ट कर ज्ञान की ज्योति प्रदान करता है। गुरु ही देव गन्धर्व आदि से वन्द्य होता है। आद्य शंकराचार्य के अनुसार जिसने अविद्या रूपी ग्रंथि का छेदन कर दिया है, वही गुरु है। जैन ग्रंथों में गुरु के लिये धर्माचार्य आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है। भगवती आराधना में दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारों का जो स्वयं निरतिचार पालन करता है - तथा दूसरों को प्रवृत्त करता है वही गुरु है - आचार्य है । भगवती सूत्र में सद्गुरु के लक्षणों का विवेचन मिलता है। गुरु वही है जो सूत्र और अर्थ दोनों का परम ज्ञान रखता हो, संघ के लिए रीढ़ के सदृश हो और धर्म संघ को संतापों से मुक्त करने की क्षमता रखता हो एवं आगमों के गूढार्थ बताता हो - वही आचार्य है - गुरु है। गुरु अंतरंग व बहिरंग परिग्रह से रहित होता है। आचार्य भद्रबाहु ने संघ के आचार्य को 'सीयघरो आयरियो' की संज्ञा दी है अर्थात् आचार्य शीत गृह के समान होता है - शान्त और शीतल, समस्त कषायों से मुक्त । आज तो विज्ञान के अनुसंधान ने भी यह प्रमाणित कर दिया है कि आंतरिक व बाह्य शीतलता (सौम्य और सरलता) ऊष्मा से अधिक मनुष्य को अधिक शक्ति सम्पन्न बनाती है। इस वैज्ञानिक मान्यता को "क्रियोजेनिक्स साइन्स' कहा गया है। इस आंतरिक व बाह्य शीतलता का ही संदेश आचार्यप्रवर स्वाध्याय व सामायिक, चिन्तन व ध्यान से दिया करते थे। स्वाध्याय एवं सामायिक के पश्चात् वे चिन्तन | |व ध्यान की ओर अभिप्रेरित करते थे ।
सिंह के समान निर्भय हो, आकाश की भांति निर्लेप और संघ के अनुग्रह में कुशल हो, सूत्रार्थ में विशारद और सर्वत्र कीर्ति सम्पन्न हो वही आचार्य श्रेष्ठ है। (भगवती सूत्र, अभयदेव वृत्ति) आदिपुराण में भी गुरु के लक्षण बताए हैं । 'गुरु-तत्त्व-विनिश्चय' में गुरु की अनेक विशेषताओं व गुणों का निरूपण किया गया है। गुरु मनुष्य को अन्तर्मुखी बनाकर आत्मानुसंधान की ओर अग्रसर व प्रेरित करता है। आचार्यप्रवर का यही संदेश था कि मनुष्य को | कर्म बंध व कर्म विपाक से मुक्त होने के लिए षडावश्यक हैं। पातंजल योग सूत्र (२-४) में कहा गया है | 'स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः। अर्थात् स्वाध्याय से इष्ट देवता (आत्मा) का बोध होकर साधक को अभीष्ट की सिद्धि | प्राप्त होती है। अभीष्ट की सिद्धि से तात्पर्य है कि अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और चारित्र की सिद्धि। इसे ही | योग-साधना में भिन्न प्रकार से “तस्य सप्तधा प्रान्तभूमि: प्रज्ञा” कहा गया है। यह निर्विवाद है कि शीतलता अथवा | शान्ति बाहर से नहीं आती। उसका मूल स्रोत भीतर आत्मा के निकट है - मन जितना आत्मा से दूर होगा - उतना | ही कर्मजन्य क्लेश और अशान्ति होगी। आचार्य प्रवर की यही शिक्षा थी कि तुम्हारा ज्ञान आनन्त्य तक और ||