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________________ श्रद्धा क्यों न हो उन पर पूज्य गुरुदेव आचार्य भगवन्त श्री हस्तीमलजी म.सा. से मैं अत्यन्त प्रभावित हूँ। अनेक संस्मरण आज भी • श्री पारसमल चोरडिया याद हैं । कुछ संस्मरण मैंने अपने पूज्य पिता श्री लखमीचन्दजी चोरडिया एवं बुजुर्ग श्रावक श्री हरकचंदजी मूथा से सुने हैं तथा कुछ का मैंने स्वयं अनुभव किया है। विक्रम संवत् २००० में पूज्य आचार्य भगवन्त का उज्जैन चातुर्मास कई कारणों से स्मरणीय रहा (१) इस चातुर्मास में मूर्तिपूजक सन्त श्री धर्मसागरजी महाराज का भी चातुर्मास था। एक दिन जब आचार्यश्री जंगल से लौट रहे थे तब आपसे धर्मसागरजी महाराज का साक्षात्कार हो गया। उन्होंने आचार्यश्री को सम्बोधित कर | कहा कि यह अच्छा अवसर मिल गया है जब मन्दिर और मूर्ति के विषय में थोड़ी चर्चा कर लें । आचार्यश्री ने कहा - मुनिजी चर्चाएँ तो आपके और हमारे पूर्वजों ने बीसियों बार की हैं, किन्तु उनका कोई | निर्णायक नतीजा आज तक नहीं निकला। इसके उपरान्त भी यदि आप चाहें तो आपके संघ की ओर से इस प्रकार की मांग प्रस्तुत होने पर समुद्यत हो सकूँगा। आप कदाचित् मेरी बात से सहमत भी हो जायें तो जरूरी नहीं कि | आपका संघ भी हमसे सहमत हो। आचार्य श्री ने स्थानक में आकर समाज के सम्मुख धर्मसागरजी महाराज की बात रखी। इससे मूर्तिपूजक समाज और स्थानकवासी समाज दोनों में हलचल मच गई। मूर्तिपूजक समाज ने पारस्परिक विचारविमर्श के पश्चात् कहलवाया कि हमारे यहाँ दोनों समाजों में पारस्परिक सौमनस्य और प्रेम का वातावरण है । हम चर्चा कुछ नहीं करना चाहते । परिणामत: विवाद का जो बुदबुदा उठा था वह उसी क्षण शान्त हो गया। (२) स्थानकवासी धर्म को मानने वाले परिवार अनेक जातियों में थे और आज भी हैं। उस वक्त मोड़ जाति के श्रावक श्राविका भी स्थानकवासी धर्म का आचरण करते थे। उनके साथ बैठकर भोजन करने की परम्परा नहीं थी, कारण कि उनको हल्की जाति का मानते थे। जब यह बात पूज्य आचार्य भगवन्त को ज्ञात हुई, तब उन्होंने स्थानकवासी श्रावक संघ के प्रमुख व्यक्तियों से कहा कि आपके मोड़ जाति के भाई हैं और आपके साथ-साथ धर्म आराधना करते हैं। स्वधर्मी बन्धुओं के साथ भेदभाव उचित नहीं। इस पर स्थानीय प्रमुख श्रावकों ने संवत्सरी के उपवास के पारणे सामूहिक करने का निर्णय लिया और सामूहिक पारणे एक ही स्थान पर हुए। मोड़ जाति के सभी श्रावक भी सम्मिलित हुए। प्रेम का वह दृश्य अद्भुत था। (३) संवत् २००० में ही पर्युषण महापर्व पर स्थानीय स्थानक छोटा पड़ने के कारण प्रवचनों की व्यवस्था बच्छराज भण्डारी की धर्मशाला में की गयी थी। उस वर्ष पर्युषण पर्व के दिनों वर्षा खूब होती थी। पर जिस समय पूज्य आचार्य भागवन्त एवं सन्तमण्डल को प्रवचन के लिये धर्मशाला में जाना होता तब वर्षा बन्द हो जाती। वहां पर पहुंचने के पश्चात् फिर वर्षा प्रारम्भ हो जाती तथा प्रवचन पूर्ण होने के पश्चात् वर्षा बन्द हो जाती और पूज्य आचार्य भगवन्त एवं सन्त-मण्डल स्थानक में आसानी से आ जाते। एक भी दिन पूज्य आचार्य भगवन्त एवं स्थानीय संघ को प्रवचन में जाने आने की अन्तराय नहीं लगी। यह एक ऐसा चमत्कार था कि हर व्यक्ति पूज्य आचार्य भगवन्त के गुण- गान करता थकता नहीं था। प्रकृति भी पूज्य आचार्य भगवन्त पर मेहरबान थी।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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