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________________ प्रेम एवं करुणा के सागर : गुरु महाराज श्री नथमल हीरावत गुरु महाराज आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. के रोम-रोम में से प्रेम एवं करुणा की अजस्र धारा बहती थी । उनके पास जो कोई भी जाता, वह उनकी प्रेम एवं करुणा की धारा से प्रक्षालित एवं प्रभावित हो जाता था। आवश्यक नहीं था कि वे बातचीत करें ही, फिर भी घण्टों उनके पास बैठने का मन करता था । उन लोगों के प्रति भी उनकी प्रेम भावना उतनी ही थी जिनसे वे कम बोलते थे । · मैं भी उन हजारों व्यक्तियों में से एक हूँ, जिन पर गुरुदेव का उपकार रहा। उन्होंने मुझे सही दिशा की ओर | मुख करके खड़ा कर दिया, यह मेरा अहोभाग्य है । उन्होंने ही मुझे स्वाध्याय से जोड़ा। गुरु महाराज के सम्पर्क में मैं जीवन के प्रारम्भ से ही आ गया था । संवत् २०११ में जब २४ - २५ साल का था, तब और अधिक जुड़ाव | गया, जो निरन्तर बढ़ता रहा। गुरुदेव का इतना प्रेम रहा, जिसे शब्दों में प्रकट नहीं किया जा सकता। शब्दों में प्रकट | करना उसे सीमित बनाता है। मैं ही नहीं हर एक व्यक्ति यही कहेगा कि उनकी बहुत कृपा थी। जो कामना पूर्ति की | दृष्टि से गुरुदेव के पास पहुंचते थे, उनके मूल्यांकन में कृपादृष्टि कम-अधिक हो सकती है, अन्यथा आत्मिक उन्नयन की दृष्टि से उनका उपदेश सबके लिए महत्वपूर्ण होता था। गुरुदेव के मौन होती, कोई बात नहीं करते तब भी उनके | सान्निध्य में बैठकर आनन्द का अनुभव होता । गुरु महाराज बहुत ही सरलहृदय थे। कभी कोई बात होती तो वे फरमाते - “ नत्थू (नथमल ) मुझसे कोई क्यों झूठ बोलेगा ?” अत्यन्त सरलता थी। गुरु महाराज का अपने विरोधियों के प्रति भी करुणा भाव था । उनके मन में कभी अन्यथा भाव नहीं आता था। गुरुदेव ने मुझे आत्मीयता दी एवं संघ-सेवा से जोड़ा । गुरुमहाराज का स्वाध्याय पर बड़ा बल था । उन्होंने स्वयं कितने ही व्यक्तियों को थोकड़े सिखाए सद् ग्रन्थों | का स्वाध्याय करना सिखाया । सन्तों का संग तो समय-समय पर ही सम्भव होता है, किन्तु सद्ग्रन्थ का साथ कभी भी हो सकता है। गुरुदेव ज्ञान एवं आचार को विशेष महत्त्व देते थे । आचरण सुधारने के लिए उनकी प्रेरणा अद्भुत | होती थी। गुरु महाराज के योगदान को तीन स्तरों पर समझा जा सकता है - १. निज की साधना के रूप में । २. जैन धर्मावलम्बियों के प्रति योगदान के रूप में । ३. प्राणिमात्र के कल्याण के रूप में। संगठन की प्रेरणा के पीछे गुरुदेव का दृष्टिकोण था कि सब एक दूसरे की प्रेरणा से अपने जीवन को आगे बढ़ाएँ । गुरुमहाराज के दर्शन ही मंगल थे, उनके जीवन की तो क्या बात कहें । वे किसी से राग-द्वेष बढ़ाना नहीं चाहते थे। किसी के द्वारा आक्षेप लगाये जाने पर भी उनके मन में कभी द्वेष का भाव नहीं आया । गुणिजनों को | देखकर एवं उनके गुणों के सम्बन्ध में सुनकर गुरु महाराज प्रमुदित होते थे । आपमें अपने-पराये का भेदभाव नहीं था। सबको समान रूप से प्रेरणा करते थे। अपने भी यदि गलत कार्य करते तो वे विरोध करने या कहने में हिचकिचाते नहीं थे तथा किसी भी सम्प्रदाय का साधु यदि आचारनिष्ठ एवं - | गुण सम्पन्न होता तो वे उसकी प्रशंसा किए बिना नहीं रहते । उनका हृदय उदार था। गुरु महाराज गुणनिधान थे । उनके गुणों से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है ।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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