SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 582
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ५१६ प्राप्त हुआ। उन करुणानिधान की अब स्मृतियाँ ही शेष हैं। सन् १९७९ के जलगाँव चातुर्मास में, उसके पूर्व एवं पश्चात् आपकी सन्निधि में रहकर जो आनन्द मिला वह आज भी मन को प्रमुदित करता है। गुरुदेव ने मुझे परिग्रह-मर्यादा, संयम, तप एवं त्याग के लिये प्रेरित किया। आयम्बिल, उपवास, पहरसी आदि तप की प्रेरणा गुरुदेव से ही मिली। उन्हीं के सदुपदेशों से मैं मांसाहारियों को शाकाहारी बनाने के लिये प्रवृत्त हुआ। अहिंसा से जुड़े इस अभियान में मुझे बहुत आनन्द मिला। कई मांसाहारी होटल शाकाहारी होटलों में बदल गये। कोसाणा चातुर्मास में आपसे प्रतिमास प्रतिपूर्ण पौषध का नियम ग्रहण किया, जो उन्हीं के कृपाप्रसाद से आज भी चल रहा है। स्वाध्याय एवं सामायिक आपके जीवन के मिशन थे। मुझे भी करुणानिधान ने इन प्रवृत्तियों से जोड़कर मेरा जीवन बदला। ___ मैं तो उन्हें इस युग का भगवान समझता हूँ - ___ मैने अपनी इन आँखों से सच ऐसे इंसान को देखा है। जिसके बारे में सब कहते हैं, धरती पर भगवान को देखा है। कृपानिधान पूज्य गुरुदेव के रोम-रोम से करुणा की वर्षा होती थी। शब्द-शब्द में जीवदया के भाव प्रतिध्वनित होते थे, जीवन के एक-एक क्षण का उन्होंने महत्त्व समझा। प्राणिमात्र के कल्याण के लिए चिन्तनशील आत्मसाधक एवं अध्यात्मयोगी ने मुझे अन्तिम सन्देश दिया - "संघ - सेवा, स्वाध्याय-साधना में कहीं कसर न पड़े, इसका खयाल रखना।” उनका यह संदेश आज भी मेरे हृदय में टकसाल में ढले सिक्के की तरह उट्टंकित है। तत्कालीन संघाध्यक्ष श्री मोफतराजजी मुणोत के बाद संघाध्यक्ष किसे बनाया जाय ? संघ में यह बड़ा विकट प्रश्न था। संरक्षक-मण्डल के सभी सदस्यों की भावना थी कि इस कार्यभार को मैं सम्भाल लँ। मेरी मनः स्थिति इसके लिये बिल्कुल तैयार नहीं थी। आचार्य श्री हीराचन्द्र जी म.सा. का चातुर्मास पीपाड़ सिटी में था। संघ की मीटिंग में बहुत प्रयास करने पर भी सफलता नहीं मिली। जयपुर से संघ के आधार स्तम्भ सुश्रावक श्री नथमलजी सा हीरावत को बुलाया गया। उन्होंने भी खूब समझाया, परन्तु मैं किसी भी परिस्थिति में यह पद लेने को तैयार नहीं था। जलगांव में मेरे परिवारजनों से भी स्वीकृति ले ली गई, फिर भी मेरी मानसिकता नहीं बनी। प्रात:काल जब हम वापस रवाना होने के लिये आचार्य श्री के दर्शनार्थ उपस्थित हुए तो अचानक मुझे गुरुदेव के अन्तिम सन्देश का स्मरण हो आया कि संघ-सेवा का खयाल रखना। मेरे मन ने मोड़ लिया और सोचा कि मुझे गुरुदेव का आशीर्वाद प्राप्त है, फिर मैं क्यों घबरा रहा हूँ। मैंने तत्काल संघ संरक्षकगण का आग्रह स्वीकार कर लिया। मोफतराजजी ने वहीं मुझे बाहों में भरकर उठा लिया। पूरे संघ में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। मैं इसमें अपनी योग्यता को नहीं, पूज्य गुरुदेव के आशीर्वाद एवं कृपाप्रसाद को ही कारण समझता हूँ कि मुझे संघ-सेवक बनने का अवसर मिला। ऐसे महिमामंडित अध्यात्मयोगी इतिहास पुरुष के जितने गुणानुवाद किये जायें कम हैं। वह महान् आत्मा जहाँ भी हो, मुझे सत्कार्यों की ओर प्रेरित करती रहे, यही विनम्र भावना है। इस युग का सौभाग्य रहा जो इस युग में गुरुवर जन्मे। अपना यह सौभाग्य रहा, गुरुवर के युग में हम जनमे ।। कल युग में भी यह सत युग गुरुवर के नाम से जाना जायेगा। कभी महावीर की श्रेणी में गुरुवर का नाम भी आयेगा। -नयनतारा, सुभाष चौक, जलगाँव
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy