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________________ पंचाचार के आदर्श आराधक तत्त्वचिन्तक श्री प्रमोदमुनिजी म.सा. आचार्य की आठ सम्पदाओं में पहली आचार सम्पदा है। जो संघ आज तक अक्षुण्ण चल रहा है वह विशिष्ट | आचार्यों के आचार बल के कारण चल रहा है। तीर्थेश महावीर की परम्परा के अव्याबाध रूप से चलने का प्रमुख कारण है उनकी आचारनिष्ठ साधना । आचार पांच हैं ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार | - - · पूर्वसंचित पुण्य का उदय है कि श्रेष्ठ गुरुदेव आचार्य भगवन्त पूज्य श्री हस्तीमलजी मसा. के सान्निध्य का हमें सुअवसर प्राप्त हुआ । पंचाचार के आदर्श आराधक थे । उषाकाल की लालिमा से सन्ध्याकाल के धुंधलके तक उनका सारा जीवन ज्ञानाचार के निर्मल प्रकाश से प्रकाशित था । गुरुदेव का ज्ञान अगाध था । आगम, थोकड़े, इतिहास, संस्कृत, प्राकृत, तन्त्र-मन्त्र चाहे जिस विषय पर उनसे चर्चा की जा सकती थी । सिद्धान्तकौमुदी नामक व्याकरण ग्रंथ उन्होंने लघुवय में पढ़ा था, किन्तु वृद्धावस्था में भी उन्हें उसका ऐसा पक्का ज्ञान था, कि मानो वे उसके अधिकारी वैयाकरण हों । ज्ञान ही नहीं उनका साधक जीवन | बरबस आगन्तुक को आकर्षित कर लेता था । भगवन्त ने २३ साल की युवावय में केकड़ी में शास्त्रों में शुद्ध मान्यता | क्या है, उसकी ध्वजा फहराई। अजमेर सम्मेलन में बड़े बड़े आचार्यों और सन्तप्रवरों द्वारा आचार्य भगवन्त की | ज्ञान-गरिमा का आदर किया गया। सम्मेलन की अनेक समितियों में आपको रखते हुए प्रायश्चित्त समिति का | संयोजक नियुक्त किया गया। स्वयं ज्ञानाराधन में तत्पर गुरुदेव अपने शिष्यों में भी इस प्रकार की प्रेरणा करते थे । | पण्डित रत्न शुभेन्द्र मुनि जी के साथ हम सवाईमाधोपुर से सन् १९९१ के चातुर्मासोपरान्त पाली पहुँचे । गुरुदेव ने मुझे फरमाया- "महेन्द्र मुनि जी एक घण्टा सुनाते हैं, गौतम मुनि जी एक घण्टा सुनाते हैं, अब तू भी एक घण्टा बाँध ले। मैं अब पढ़ नहीं सकता इसलिए तुम मुझे निरन्तर सुनाते रहो। ” बुढ़ापे में भी भगवन्त की स्वाध्याय एवं जिनवाणी के प्रति कैसी निष्ठा ! स्वयं वाचन न कर सकते तो सन्तों से सुनते । भगवन्त ने हम सन्तों को भी खूब पढाया। मुझे याद है, गुरुदेव ने हमको प्रतिदिन एक-डेढ घण्टे निरन्तर पढाया । स्वस्थ रहते हुए एक भी दिन अवकाश नहीं । एक दिसम्बर उन्नीस सौ बयासी को जलगांव से विहार यात्रा प्रारम्भ हुई। कभी हमको विलम्ब हो गया, तो उपालम्भ मिला, परन्तु भगवन्त ने कभी देरी नहीं की । दशवैकालिक सूत्र और संस्कृत का अभ्यास प्रारम्भ करवाया। ज्ञान के प्रति भगवन्त की कैसी ललक थी ! भगवन्त बचपन की उम्र से ज्ञानाराधन समय का सदुपयोग करते | संस्कारदाता बाबाजी हरखचन्द म.सा. से प्राप्त समय का सदुपयोग करने के संस्कार भगवन्त में | जीवनपर्यन्त रहे । उक्ति है - " क्षणशः कणशश्च विद्यां वित्तं च साधयेत् । क्षणे नष्टे कुतो विद्या, कणे नष्टे कुतो धनम् ॥ एक-एक क्षण से समय की और एक-एक कण से वित्त की रक्षा करनी चाहिए। साधक का जीवन एक-एक | क्षण का सदुपयोग करने वाला होता है । भगवन्त इसके आदर्श उदाहरण रहे हैं। उन्होंने दीक्षा के पश्चात् एक वर्ष में पांच शास्त्र कण्ठस्थ किये। ज्ञान तभी टिकता है जब उसमें ही कोई रम जाए, अन्यथा ज्ञान टिकता नहीं। गौर से
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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