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________________ ४८२ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं • प्रत्येक स्वाध्यायी यही सोचे कि शासन-सेवा करना मेरा कर्तव्य है, मेरा अधिकार तो केवल निरन्तर कार्य करते रहने का ही है, न कि फल की कामना करने का। मेरा अभिनंदन नहीं किया गया, मैंने इतना कार्य किया, फिर भी मुझे कोई सम्मान या कोई पद आदि नहीं मिला। ऐसे किसी भी प्रकार के फल की इच्छा करना जहर है, अतः इससे बचते रहने का हर स्वाध्यायी ध्यान रखेगा। षडावश्यकों को अपने जीवन में ढालकर प्रत्येक स्वाध्यायी अपने आपको चमकाते हुए दृढ़ता से चलता रहा तो कल्याण मार्ग में आगे प्रगति कर सकेगा। उपर्युक्त बातों को चिन्तन के रूप में आप सोंचेगे, समझेंगे और कार्य रूप में परिणत करेंगे तो आपका, समाज का और विश्व का, सभी का कल्याण होगा। देश और देशवासियों की रक्षा के लिए सेना की आवश्यकता होती है। यह शस्त्रधारी सेना बाह्य शत्रुओं से ही रक्षा कर सकती है, आन्तरिक शत्रुओं से नहीं। आन्तरिक शत्रु हैं- अनाचार, अनैतिकता, पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष, कलह आदि। इन आन्तरिक शत्रुओं से रक्षा के लिए इन्हें दूर करने के लिए आवश्यकता है-शास्त्रधारी (श्रुतज्ञानी) सेना की। , शास्त्रधारी सैनिक सत् शास्त्रों का अध्ययन करके, ज्ञान और चारित्र पक्ष को हृदय में धारण करके, स्वयं अपने जीवन की अनैतिकताओं को निकाल बाहर फेंकते हैं, साथ ही आन्तरिक शत्रुओं से मुक्त होने में अन्य लोगों के भी सहायक बनते हैं। इसलिए आज संसार को अनाचार, अनैतिकता, ईर्ष्या-द्वेष, कलह आदि की समाप्ति के लिए शस्त्रधारी नहीं, शास्त्रधारी सैनिकों की आवश्यकता है। जो स्वाध्यायी पठन-पाठन में प्रवेश पा चुके हैं, वे यह न सोचें कि वे पूरे स्वाध्यायी बन गये हैं। जिस तरह पहली कक्षा में पढ़ने वाला भी विद्यार्थी कहलाता है और जब तक स्नातक नहीं हो जाता तब तक भी विद्यार्थी ही कहलाता है। स्नातक बन जाने के पश्चात् ही वह कहता है कि उसने पढ़ाई पूरी कर ली है। उसी प्रकार आप भी स्वाध्याय के निरन्तर अभ्यास द्वारा अज्ञान को मिटाते हुए निरन्तर आगे बढ़ते रहेंगे तभी पूरे स्वाध्यायी कहला सकते हैं। इसी लक्ष्य को लेकर आपको आगे बढ़ना है। • यह प्रमोद का विषय है कि हमारे अनेक बंधु स्वाध्याय में, स्वाध्याय शिक्षण ग्रहण करने में प्रवृत्त हो गये हैं। जो नहीं हुए हैं जिनके मन में जिन शासन के प्रति प्रेम है, वीतरागवाणी के प्रति श्रद्धासिक्त स्नेह है, वे स्वाध्याय में प्रवृत हों। • कभी-कभी ऐसा अनुभव होता है कि स्थानक में झाडू स्वयं स्वाध्यायी भाइयों को लगाना पड़ता है और घर-घर पर जाकर भाइयों को बुलाना पड़ता है। यदि स्वाध्यायी भाई घबरा जायेंगे तो काम नहीं चलेगा, कहीं भोजन पकाने वाला नहीं मिलता, सार-संभाल करने वाला नहीं मिलता तो यह नहीं सोचे कि मैं यहाँ पर क्या रहूँ, ऐसा सोच लिया तो सेवा नहीं होगी। सेवा नहीं होगी तो सच्चे स्वाध्यायियों के नम्बर में पास नहीं होंगे। स्वाध्यायी को किसी के दोष नहीं देखना है, किसी के प्रति ईर्ष्या नहीं जगानी है, किसी की टीका-टिप्पणी नहीं करनी है। अपने नियत कार्य में निरन्तर प्रगति करते हुए निष्ठा के साथ जिनशासन और समाज की सेवा को | अपना कर्तव्य समझ कर उत्तरोत्तर आगे बढ़ना है। कोई भी स्वाध्यायी हो, वह स्वाध्यायी आपका सहधर्मी भाई है। किसी स्वाध्याय-संघ का स्वाध्यायी हो, वह आपका स्वाध्यायी बंधु है। प्रत्येक जैन आपका जैन भाई है। इसके अलावा जो दूसरे समाज के बंधु हैं, वे भी आपके भाई हैं । अतः किसी की आलोचना में, टीका-टिप्पणी में पड़कर आपको अपने समय का दुरुपयोग नहीं करना है।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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