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________________ द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ४८१ लक्ष्य और बहिरंग लक्ष्य । मोटे रूप में स्वाध्याय का तीसरा लक्ष्य बताया गया है कि समाज के हजारों बंधु पर्वाधिराज पर्युषण के दिनों में धर्माराधन से वंचित रहते हैं, उनके वहाँ पर्वाराधन के दिनों में स्वाध्यायी बंधुओं को भेजकर उन्हें धर्माराधन करवाना। स्वाध्याय संघ द्वारा प्रतिवर्ष अनेक स्थानों पर पर्वाराधन के दिनों में धर्माराधन करवाने के लिए स्वाध्यायी भेजे जाते हैं । तथापि स्वाध्यायियों की संख्या आवश्यकता की अपेक्षा अति स्वल्प होने के कारण अनेक स्थानों के हजारों भाई इस लाभ से वंचित रह जाते हैं । इस कमी को पूरा करना स्वाध्याय का तीसरा लक्ष्य है। 1 ■ स्वाध्याय-संघ • वर्तमान में हमारी साधु संख्या कम पड़ रही है। त्याग तप की तेजस्विता मंद हो रही है। स्वाध्याय-संघ को खड़ा करने का उद्देश्य साधु-संघ को बल देना है । इसी दृष्टि से स्वाध्याय-संघ नामक इस संस्था का जन्म हुआ। • हमारे गाँव तो हजारों हैं, समाज के सदस्यों की संख्या लाखों हैं, पर साधु-साध्वियों की संख्या इनी - गिनी रह गयी हैं । उन इने-गिनों में भी, जो समाज को अपनी ओर खींच सकें, ऐसे साधु-साध्वी अंगुलियों के पोर पर गिनने योग्य रह गये हैं। तो फिर भगवान महावीर शासन के अस्तित्व को किस प्रकार सुदृढ़ और सशक्त रखना, यह आवश्यकता हो गई। इस आवश्यकता के बढ़ते रूप में मन को चिन्तन करने का अवसर आया कि यदि जल्दी ही इसका उपाय नहीं किया गया तो समाज का रक्षण नहीं हो सकेगा । • आज स्वाध्याय संघ के सदस्यों की संख्या ६०० है । इससे और अधिक संख्या हो जाए तो मैं केवल संख्या के बढ़ने मात्र से ही प्रसन्नता प्रकट करने वाला नहीं हूँ। एक ही आवाज पर एक इंगित पर शासन - सेवा में पिल पड़ने, जुट जाने और समर्पित होने की भावना जितनी अधिक मात्रा में होगी उतनी ही मात्रा में मैं स्वाध्यायी बंधुओं का शासन हित में अधिक योगदान मानूँगा । संख्या तो अधिकाधिक होती जाए और एक ही आवाज पर सुसंगठित एवं अनुशासित रूप में शासन हित के कार्य करने की भावना नहीं हो तो इसे इस संस्था की सफलता नहीं माना जा सकता । प्रत्येक स्वाध्यायी के मन में शासन हित व समाज सेवा के कार्यों में सदा तत्पर रहने की भावना और लगन होना परम आवश्यक है 1 ■ स्वाध्यायी • प्रत्येक स्वाध्यायी कंधे से कंधा मिलाकर अग्रसर होता रहेगा तो वह अपने जीवन का, समाज का और राष्ट्र का नवनिर्माण करने में सफल होगा। • मैं किसी भी स्वाध्यायी में कोई भी व्यसन देखना नहीं चाहूँगा। यदि किसी स्वाध्यायी में कोई व्यसन होगा तो वह उसके जीवन के साथ-साथ स्वाध्याय संघ जैसी पवित्र संस्था पर भी धब्बा होगा । प्रत्येक स्वाध्यायी का जीवन निर्व्यसनी होना चाहिए, कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ने वाला होना चाहिए । I • प्रत्येक स्वाध्यायी पूर्ण निष्ठा के साथ समाज सेवा के कर्त्तव्य पथ पर अग्रसर होता रहे । कर्त्तव्यपरायणता के साथ कार्य करता रहे। अपने कार्य के फल की इच्छा नहीं करे। महिमा - पूजा और मान-सम्मान को विषवत् समझे । कम से कम स्वाध्याय संघ के, समाज सेवा के, जिनशासन की सेवा के अर्थात् स्व-पर कल्याण के इस पुनीत कार्य को तो किसी लौकिक फलप्राप्ति की इच्छा रखे बिना करता रहे।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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