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________________ (द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ४५७ जाता है, जहाँ हंसी मजाक में भी गाली गलौच का या अशिष्ट शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता है और नैतिकतापूर्ण जीवन व्यतीत करने का आग्रह होता है उस घर का वातावरण सात्त्विक रहता है और उस घर के बालक सुसंस्कारी बनते हैं। अतएव माता-पिता आदि बुजुर्गों का यह उत्तरदायित्व है कि बालकों के जीवन को उच्च, पवित्र और सात्त्विक बनाने के लिए इतना अवश्य करें और साथ ही यह सावधानी भी रखें कि बालक कुसंगति से बचा रहे। पिता बन जाना बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात है अपने पितृत्व का सही ढंग से निर्वाह करना यह बात प्रत्येक पुरुष को पिता बनने से पहले ही सीख लेनी चाहिए। जो पिता बन कर भी पिता के कर्तव्य को नहीं समझते अथवा प्रमादवश उस कर्तव्य का पालन नहीं करते वे वस्तुतः अपनी सन्तान के घोर शत्रु हैं और समाज तथा देश के प्रति भी अन्याय करते हैं। सन्तान को सुशिक्षित और सुसंस्कारी बनाना पितृत्व के उत्तरदायित्व को निभाना है। सन्तान में नैतिकता का भाव हो, धर्म-प्रेम हो, गुणों के प्रति आदरभाव हो, कुल की मर्यादा का भान हो, तभी सन्तान सुसंस्कारी कहलायेगी। किन्तु केवल उपदेश देने से ही सन्तान में इन सद्गुणों का विकास नहीं हो सकता। पिता और माता को अपने व्यवहार के द्वारा इनकी शिक्षा देनी चाहिए। जो पिता अपनी सन्तान को नीति धर्म का उपदेश देता है, पर स्वयं अनीति और अधर्म का आचरण करता है, उसकी सन्तान दम्भी बनती है, नीति धर्म उसके जीवन में शायद ही आ पाता है। विवेकहीन श्रीमन्त अपनी सन्तति को आमोद-प्रमोद में इतना निरत बना देते हैं कि पठन-पाठन की ओर उनकी प्रवृत्ति ही नहीं होती। सत्समागम के अभाव में वे आवारा हो जाते हैं। आवारा लोग उन्हें घेर लेते हैं और कुपथ की ओर ले जाकर उनके जीवन को नष्ट करके अपना उल्लू सीधा करते हैं। आगे चलकर ऐसे लोग अपने कुल को कलंकित करें तो आश्चर्य की बात ही क्या? पटाखों के बदले बच्चों को यदि दूसरे खिलौने दे दिये जाएँ तो क्या उनका मनोरंजन नहीं होगा? पटाखों से बच्चों को कोई शिक्षा नहीं मिलती। जीवन-निर्माण में भी कोई सहायता नहीं मिलती। उनकी बुद्धि का विकास नहीं होता। उलटे उनके झुलस जाने या जल जाने का खतरा रहता है। समझदार माता-पिता अपने बालकों को संकट में डालने का कार्य नहीं करते। किस उम्र के बालक को कौनसा खिलौना देना चाहिए जिससे उसका बौद्धिक विकास हो सके, इस बात को भली-भांति समझ कर जो माता-पिता विवेक से काम लेते हैं, वे ही अपनी सन्तान के सच्चे हितैषी हैं। संस्कृति-रक्षण • आज हमारे वर्तमान जीवन में सामूहिकता, पारिवारिक सद्भावना, धर्मनिष्ठा और ज्ञान की आचरणशीलता टूट-टूट कर बिखर रही है और प्रत्येक क्षेत्र में स्वार्थमूलकता, वैयक्तिक लिप्सा तथा संग्रहशीलता घर करती जा रही है। पाश्चात्त्य सभ्यता और भौतिकता की अतिशयता के अन्धानुकरण ने व्यक्ति-व्यक्ति में खोखलापन, अलगाव, गैर जिम्मेदारी, फैशन-प्रियता और बाह्य आडम्बर की बलवती स्पृहा भर दी है। ऐसे समय में व्यक्ति को नैतिक, धार्मिक, संवेदनशील, सहिष्णु, कर्त्तव्यनिष्ठ और आत्मोन्मुखी बनने की दिशा में कारगर कदम उठाने चाहिए।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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