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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ४५६ वरना बुरा निमित्त तो कम से कम मत बनिये। हर माँ, बाप, स्त्री, भाई, भतीजे आदि का कुछ न कुछ निमित्त होता है। माता-पिता की कमजोरी से बच्चों में गलत परिणति आ जाती है। गलत निमित्त बनना अच्छा या शुभ निमित्त? शुभ निमित्त बनने के लिए जो अवसर मिले हैं, उनका पूरा उपयोग होना चाहिए। • दुनियां भर के व्यवहार बच्चों के लिए किये जाते हैं। उनकी सुख-सुविधा बढ़ाने के लिए, शिक्षा के लिए, धंधे में लगाने के लिए हजारों तरह के प्रयास करते हैं, व्यवहार करते हैं। लेकिन उनके आत्म-सुधार के लिए क्या कभी आपने प्रयास किया है, या करते हैं? आप प्रातःकाल उठते ही अपने बच्चों के लिए यह तो चिन्ता करते हैं कि उन्होंने नाश्ता किया या नहीं। किन्तु उनसे यह नहीं पूछते कि उन्होंने नमस्कार मंत्र का स्मरण किया या नहीं, सामायिक की या नहीं। उनके जीवन में शुभ संस्कार बढ़ने चाहिए , इसके लिए आपने क्या किया? यदि यह खयाल नहीं है तो यही कहा जाएगा कि आपका बच्चों पर मोह है, अनुराग नहीं। • बीज अकुंरित होकर बढ़ना जानता है, लेकिन किधर बढ़ना, डालियों को किधर फैलाना, इसमें माली की बुद्धि और प्रतिभा का उपयोग लगता है, तभी पौधा सुघड़ और सुन्दर रूप धारण कर लेता है। बीज के लिए जिस | तरह माली या कृषक की देखरेख रहती है, उसी तरह बालकों के विकास में माता-पिता की भूमिका होती है। • हर क्षेत्र में सुन्दरता के साथ सत्यं और शिवं भी होना चाहिए। उचित तो यह है कि पहले सत्यं और शिवं हो, फिर सुन्दरं । यही भारतीय संस्कृति की विशेषता मानी गयी है। • जैसे पोषक शक्ति के अभाव में शरीर पीला और व्याधिग्रस्त होकर बेकाम बन जाता है, वैसे ही आध्यात्मिकता के अभाव में भारतीय संतति हतप्रभ और उत्साहविहीन होती जा रही है। इसका मूल कारण है साधना की कमी और माता-पिता से प्राप्त होने वाले सुसंस्कार का अभाव। • घर में माता-पिता का जैसा व्यवहार होता है, प्रेम या विरोध का जो वातावरण दृष्टिगोचर होता है, सन्तान के मन में उसका प्रभाव अवश्य पड़ता है। इसीलिए बच्चे को जैसा बनाना चाहते हैं, दम्पती को स्वयं वैसा बनना होगा। यदि माता-पिता स्वयं विनयशील न होंगे तो बच्चे कैसे विनयशील होंगे? यदि पिता स्वयं की बुढ़िया माँ से ठीक व्यवहार नहीं करे तो उसके बच्चे बड़े होने पर माँ-बाप से विनय का व्यवहार कैसे रखेंगे? • माता-पिता का यह पुनीत कर्तव्य है कि बच्चों की सद्विद्या का उसी प्रकार ध्यान रखें, जैसे उनके भरण-पोषण का ध्यान रखते हैं। • यदि बालक को दृढ़ सुसंस्कार दिये गये तो वह विदेश जाकर भी ठगाएगा नहीं और यदि सुसंस्कार का बल नहीं रहा तो उसके भ्रष्ट हो जाने की अधिक संभावना रहती है। • जब माताओं का समय भोजन, शृंगार आदि में चला जाए और पतियों का बाजार, आफिस-सिनेमा और क्लब आदि में, तो ऐसे घरों के बच्चों का भगवान ही मालिक है। वे सुधरें या बिगड़ें दूसरा कौन देखे? जिन बच्चों को बचपन में धर्म-शिक्षा की बूंटी नहीं मिलती, बड़े होने पर उनमें धर्मरुचि कहाँ से आएगी? • वे माता-पिता अपराधी हैं जो बालक को सच्चे ज्ञान से वंचित रखते हैं और उसे आरम्भ से ही उन्नत जीवन का पाठ नहीं पढ़ाते । क्योंकि बालक का दायित्व पालक पर है, बच्चे तो अबोध और अज्ञानी होते हैं। • जिस घर में धर्म के संस्कार होते हैं, सत्साहित्य का पठन-पाठन होता है और धर्म-शास्त्रों का स्वाध्याय किया
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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