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________________ (द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ३७९ जाल को काटकर बाहर निकलने के लिए उसे ज्ञान का बल बढ़ाना होगा। जब ज्ञान होगा तभी मानव समझेगा कि “मैं कौन हूँ और जाल को कैसे काटा जाता है?" • ज्ञान हो जायेगा तब वह समझेगा कि आत्मा ज्ञान और दर्शन वाली है, वह सर्वथा अपनी है और जो धन, कुटुम्ब, परिवार और मित्र आदि बाह्य जगत की जितनी चीजें दिखती हैं, वे सब संयोग मात्र हैं। आप अपने तन पर रहने वाले कुर्ते को भी अपना कब तक कहते हो? आपने उसको फेंक दिया, निकाल दिया तब क्या कहोगे? आपके सिर पर जब तक बाल हैं, तब तक कोई आपके बाल या चोटी को पकड़कर खींचे तो क्या करोगे? आप उससे लड़ोगे और कहोगे कि अरे भाई मेरे बालों को क्यों खींचता है? तेरे बाल खींचे जाए तो तुझे कैसा लगेगा?' लेकिन आपने जब उन्हीं बालों को किसी हज्जाम से कटवा दिया और जब हज्जाम उन बालों को नाले में डालता है तब आपने उससे कभी नहीं कहा कि मेरे बालों को कहाँ डाल रहा है? बीसों बार आपने अपनी जिन्दगी में इन बालों को कटवाया होगा, लेकिन ये बाल जब तक आपके सिर पर हैं तभी तक आपने समझा कि ये मेरे हैं। आपके कपाल से जब तक इनका संयोग रहा तब तक आपने समझा कि ये मेरे हैं संयोग हट गया तो आपके नहीं रहे। • समझ लोगे उस दिन भौतिक पदार्थों में उलझने के बजाय देव-गुरु की भक्ति में लगते देर नहीं लगेगी। आपको लगेगा कि विवेक मेरा बंधु है, ज्ञान मेरा पुत्र है और सुमति मेरी सखी है, सद्बुद्धि मेरी सच्ची अर्धांगिनी है। मेरी सदा पालन-रक्षण करने वाली प्रिया कोई है तो वह है 'सुमति' । मेरा बच्चा कौन है? ज्ञान। और बंधु है, विवेक । यदि यह समझ में आ जाए, तो संसार के बंधन में मकड़ी के जाल की तरह उलझने की स्थिति नहीं आएगी। आज के युग की यह विशेषता और विचित्र प्रवृत्ति है कि मनुष्य भूल करने पर भी अपनी गलती को मानने के लिए तैयार नहीं होता, दूसरों के सामने तो हरगिज नहीं। यहाँ तक कि बहुत से लोग तो दोष स्वीकार करना मानसिक दुर्बलता मानते हैं। भूल को स्वीकार न करना ही आज के मानव का सबसे बड़ा दुर्गुण है, दोष है। इस दोष को, दुर्गुण को निकालने का, दूर करने का अमोघ साधन है—आध्यात्मिक ज्ञान । जब मनुष्य अपनी आत्मा का ज्ञान करने की ओर उन्मुख होता है तो वह स्वयं ही, बिना किसी दबाव के, अपने दोषों को स्वीकार करता है और उन्हें निकाल फेंकता है। यों तो आत्मा का गुण होने के कारण ज्ञान एक है तथापि क्षयोपशम के भेद से ज्ञान के भी पाँच भेद माने गए हैं मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यव ज्ञान और केवलज्ञान । कहने को केवलज्ञान पाँचवाँ ज्ञान है, पर जब केवलज्ञान प्रकट हो जाता है, तब पहले के मति-श्रुत आदि चारों ज्ञानों की आवश्यकता नहीं रहती। उनका अस्तित्व ठीक उसी प्रकार समाप्त हो जाता है जिस प्रकार कि समुद्र में मिल जाने पर नदियों का। ज्ञानी को दुःख नहीं होता है ज्ञानी धीरज नहीं खोता है। अज्ञान हटाकर ज्ञान धरो, स्वाध्याय करो, स्वाध्याय करो॥ • ज्ञान जब मन में, अपने सही रूप में प्रगट हो जाता है तब आदमी पैसे को साधारण चीज़ समझकर चलता है। वह सोचता है कि पैसा अलग चीज़ है और हमारा ज्ञान गुण अलग है। पैसा नाशवान है और ज्ञान शाश्वत है। • चाहे कोई कितना ही बड़े से बड़ा सम्पत्ति वाला क्यों न हो, शरीर छूटने के साथ ही उसका अरबों-खरबों का धन यहीं धरा रह जाता है, पर-भव में वह किंचित्मात्र भी साथ नहीं चलता। एक पैसा भी साथ नहीं जाता, सब यहीं
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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