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________________ ર૭૮ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं आदमी के पास बैठेंगे तो या तो क्रोध जगेगा या मोह जगेगा या काम जगेगा। किसी कामी के पास बैठे या कामिनी के पास बैठे तो वहाँ क्रोध जगा, मोह जगा, कामना जगी, लेकिन ज्ञान नहीं जगा। यदि आप अपने भीतर ज्ञान की ज्योति जगाना चाहते हैं तो पुरुषार्थ कीजिए। • तत्त्वों के वास्तविक स्वरूप को समीचीनतया समझ लेने का नाम ही सम्यग्ज्ञान है। कमाने, खाने, पीने, पहनने, राज करने, ग्राहक पटाने के ज्ञान का नाम सम्यग्ज्ञान नहीं है। अधिकार प्राप्त करना, बिगाड़ना, अनुकूल करना, यह सब सम्यग्ज्ञान नहीं, यह तो व्यावहारिक ज्ञान है। सांसारिक व्यवहार में व्यवहार-ज्ञान का उपयोग होता है। पर सम्यग्ज्ञान का उपयोग मोक्ष-मार्ग के साधन के रूप में है। स्व-पर कल्याण के लिए जिस ज्ञान की उपयोगिता है, वह सम्यक् ज्ञान है। • राख के विपुल-विशाल ढेर के नीचे दबे हुए ऊपले के मध्य भाग में छिपी चिनगारी के समान निगोद के जीवों में भी ज्ञान सदा विद्यमान रहता है। जिस प्रकार राख के ढेर के हट जाने पर कंडे के अन्तरंग भाग में छिपी आग की चिनगारी वायु का संयोग पाकर सजग हो जाती है। इसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से आत्मा का दबा हुआ ज्ञान प्रकट होकर प्रकाश में आता है। • ज्ञान के सम्यग-बल के बिना दर्शन की शुद्धि नहीं होती। दर्शन से मतलब श्रद्धा-विश्वास से है। ज्ञान के बिना श्रद्धा की पवित्रता, निर्मलता में व्यवस्थित रूप नहीं आता। • कोई भी जीव, कोई भी प्राणी चेतनाशून्य और ज्ञानशून्य नहीं है। उसमें बोध है, चेतना है, लेकिन उसमें हिताहित का खयाल नहीं है, इसलिए हम उसे सामान्य ज्ञान कहेंगे। वह जरा घट गया तो अज्ञान की स्थिति में चला जायेगा। • ज्ञान वह है, जो हमारे बंधन को काटे । बंधन को बनाने वाला मकड़ी का ज्ञान है। मकड़ी के बारे में कहा जाता है कि दूसरे जन्तु आकर उसके अण्डों को उठा न ले जाएँ इसलिए उनसे बचने के लिए वह अपने इर्द-गिर्द जाल बुनकर दूसरे प्राणियों को आने से रोकने की व्यवस्था करती है। इस तरह मकड़ी अपना जाल फैलाती है, सुरक्षा के लिए, लेकिन वह जाल हो जाता है मकड़ी को उलझाने के लिए। मकड़ी ने अपने मुँह से ताँता निकाला और उसमें उलझकर बंध गई और अपने को खत्म कर गई। ज्ञानियों ने कहा उसका ज्ञान मिथ्या है। वह अज्ञानी है, क्योंकि उसके ज्ञान ने उसी को फंसा दिया, उलझा दिया, बाहर निकलने का रास्ता नहीं रहा, इसलिए उलझकर वह मर गई। • इसी तरह आपने अपने ज्ञान के बारे में कभी सोचा कि आपकी दशा क्या है? नौजवान लड़के ने सोचा कि एक हूँ, अनेक हो जाऊँ। कल्पना उठी और उसने विवाह कर लिया। एक से दो हुआ। दो से तीन, चार, पाँच और छह हुआ। वह जब एक था तब आगे का लक्ष्य तय करने में आजाद था, यानी मुक्त था। जब चाहा तब कहीं जा सकता था, जब चाहा तब महीने भर के लिए बाहर रह सकता था। शिक्षण के लिए विलायत जा सकता था। जब चाहा तब घूमने निकल सकता था। इस तरह वह आजाद था। उसने सोचा कि एक से अनेक हो जाऊँ। उसके मुँह से ताँत या लार की तरह स्नेह की ताँत निकली और उसने बंधन स्वीकार किया। अब वह बाहर आने-जाने में स्वाधीन नहीं। • जाल बनाने वाली मकड़ी में जाल बनाने की ताकत है, लेकिन जाल को तोड़ने की क्षमता नहीं है, क्योंकि वह अज्ञानी है। लेकिन मानव में दोनों योग्यताएँ हैं। अज्ञान के वशीभूत होकर मानव जाल फैलाता है। लेकिन
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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