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________________ (द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ३४७ • आर्त्त-रौद्रध्यान को छोड़कर जो धर्मध्यान में लीन होता है और एक मुहूर्त का समय सामायिक या धर्मध्यान के चिन्तन में लगाता है, वह कल्याण को प्राप्त होता है। • सामायिक-व्रत एक दर्पण है। यदि धर्म-ध्यान की ओर अग्रसर होना है तो यह जरूरी आलम्बन है। मन को मजबूत करने के लिये संकल्प आवश्यक है। बिना संकल्प के करणी नहीं होगी और बिना करणी के || कर्म नहीं करेंगे। उचित एवं हितकर मानकर भी मन उस पर स्थिर नहीं रहता, यह साधना का बड़ा विघ्न है। • धर्म प्रेमी श्रावक अपने गाँव में बालक-बालिकाओं को धर्म तथा निर्व्यसनता की ओर प्रेरित करें तो बडे लाभ | का कारण है। • मानव जब तक मिथ्या विचार और मिथ्या आचार में रहता है तब तक अपनी आदत में , विश्वास में गलत | धारणाएँ रखता है। धर्म के बारे में गलत मानता है, गलत सोचता है और गलत बोलता है। सम्यक् विचार और आचार बन्धन काटने के साधन हैं। • चाय एक तरह का व्यसन है। यह खून को सुखाने वाली, नींद को घटाने वाली और भूख को कम करने वाली | है। • प्रभु की प्रार्थना साधना का ऐसा अंग है जो किसी भी साधक के लिए कष्ट सेव्य नहीं है । प्रत्येक साधक, जिसके हृदय में परमात्मा के प्रति गहरा अनुराग हो, प्रार्थना कर सकता है। • वीतरागता प्राप्त कर लेने पर सम्पूर्ण आकुलताजनित सन्ताप आत्मानन्द के सागर में विलीन हो जाता है। वीतरागता एक ऐसा अद्भुत यन्त्र है कि उसमें समस्त दुःख, सुख के रूप में ढल जाते हैं। • वीतरागता का साधक अपने शरीर के प्रति भी ममत्ववान् नहीं रह जाता। उस स्थिति में अपने शरीर का दाह उसे ऐसा ही प्रतीत होता है, मानो कोई झोंपड़ी जल रही है। • देहातीत दशा प्राप्त हो जाने पर शरीर का दाह भी आत्मा को सन्ताप नहीं पहुंचा सकता। भगवद्-भक्ति अथवा प्रार्थना की पृष्ठभूमि में आन्तरिक आध्यात्मिक विकास ही परिलक्षित होना चाहिए, न कि भौतिक साधनों का विकास । भगवद्-भक्ति का मुख्य उद्देश्य आत्मशुद्धि है। विवेक-दीप प्रज्वलित होने से मन का अन्धकार दूर होगा, भावालोक प्रस्फुटित होगा और तब दुःखों का स्वत: प्रक्षय हो जायेगा। मन में ज्ञानालोक का उदय होने पर सारी विचारधारा पलट जायेगी और जिसे मैं आज दुःख मान रहा हूँ उसी को सुख समझने लगूंगा। यदि अज्ञान दूर हो जाय और विवेक का प्रदीप प्रज्वलित हो उठे तो दुःख नदारद हो जायेगा। जो साधक प्रार्थना के रहस्य को समझकर आत्मिक-शान्ति के लिए प्रार्थना करता है, उसकी समस्त आधि-व्याधियाँ दूर हो जाती हैं, चित्त की आकुलता और व्याकुलता नष्ट हो जाती है और वह परमपद का अधिकारी बन जाता है।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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