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________________ ३४६ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं • सामायिक, पौषध, संवर आदि निज के कर्म काटने के साधन हैं। दान के माध्यम से समाज के योग्य क्षेत्र में संवितरण किया जाता है। दान करने वाले का पैसे पर ममत्व कम रहेगा, तो शोक-संताप कम होगा, बीमारी कम होगी। • वचन की महिमा वक्ता की योग्यता पर आधारित होती है। मन से जिनके विकार निकल गये वे श्रमण हैं, सुमन हैं। शिष्य गुरु के सामने दिल खोलकर बात कर सकता है। वह शिष्य नहीं जो गुरु से खुले मन बात नहीं करे। • उत्तम पुरुष प्रणिपात के बाद क्रोध नहीं रखते। जघन्य आदमी दीर्घद्वेषी होता है, जब तक वह एक-एक गाली के बदले में दस गाली नहीं दे दे, तब तक शान्त नहीं होता। निश्छल भाव से प्रभु के साथ सम्बन्ध जोड़कर आगे बढ़ने का प्रयास करोगे तो अवश्य कल्याण के भागी बनोगे। • सर्वार्थसिद्ध विमान के देवता सम्पदा और वैभव के कारण सुखी नहीं हैं, वरन् वे सुखी हैं पौद्गलिक कामना कम | होने के कारण । वे उपशान्तभाव में रहने वाले हैं। उनमें क्रोध, मान, माया, लोभ अति मन्द दशा में हैं। • तन और वाणी से तो क्रिया होती रहे और मन कहीं अन्यत्र भटकता रहे, उसे द्रव्य-क्रिया समझिए। • उजाला भय मिटाता है और अंधेरा भय फैलाता है। इसी प्रकार ज्ञान से भय मिटता है और अज्ञान से भय | बढ़ता है। • व्रत रखते हुए भी प्रमाद नहीं छोड़ा तो पाप का मूल छूटेगा नहीं। • बंधन वाला जब तक बंधनमुक्त को लक्ष्य में नहीं लेगा, बन्धनमुक्त नहीं हो सकेगा। • जो मूक भावदाता होते हैं, वे चुपचाप शान्त एवं त्यागमय जीवन से, शान्त मुखमुद्रा से, अपनी चर्या से, बिना बोले आगन्तुक व्यक्ति को शान्ति का रस देते हैं। • पहले-पहल विचार-शुद्धि होनी चाहिए और उसके बाद दूसरे नम्बर पर आचार-शुद्धि होनी चाहिए। • कर्म को काटना है तो उसका रास्ता है - श्रुतधर्म और चारित्रधर्म को अपनाना। श्रुतधर्म से विचारशुद्धि होती है और आचारधर्म से चारित्रशुद्धि । वाणी का संयम, तन का संयम, मन का संयम ही हमारी आत्मशुद्धि में सहायक होता है। • जहाँ भौतिक लाभ होता है, वहाँ संगठन आसानी से हो जाता है। लेकिन धार्मिक संगठन मुश्किल से होता है । वैसा संगठन करने में देर लगती है। • मिथ्या विचार और मिथ्या आचार बन्ध के हेतु हैं। • हमारी मनःस्थिति में, राग और द्वेष के रूप में जो चिन्तन चलता है, परिणमन होता है, वह विकार है और वही बन्ध का कारण है। • तनयोग से, मनोयोग से और वाणीयोग से सामायिक की साधना की जाए तो अनंत अनंत कर्म समाप्त हो सकते
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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