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________________ आमुख XXXV जाए ? इस प्रश्न का समाधान चरितनायक के भक्तिप्रवण दार्शनिक मस्तिष्क ने इस प्रकार दिया - "प्रभु भक्ति तुम्ब की तरह तारक है, मन की मशक में प्रभु-भक्ति एवं सद्विचार की वायु भरने से आत्मा हल्की होकर तिर जाती है।" लौकिक कामना के लिए भक्ति करने का निषेध करते हुए आपने फरमाया- "किसी लौकिक वस्तु की प्राप्ति के लिए भक्ति करने की आवश्यकता नहीं। लौकिक कामना भक्ति या तप का मोल घटाने वाली है।" वीतराग की स्तुति की उपयोगिता प्रतिपादित करते हुए आपने निरूपित किया- "हमारी प्रार्थना के केन्द्र यदि वीतराग होंगे तो निश्चित रूप से हमारी मनोवृत्तियों में प्रशस्त और उच्च स्थिति आएगी। उस समय सांसारिक मोह माया का कितना ही सघन पर्दा आत्मा पर क्यों न पड़ा हो, किन्तु वीतराग स्वरूप का चिन्तन करने वाले उसे धीरे-धीरे अवश्य हटा सकेंगे। "वीतराग की स्तुति वीतराग बनने के लिए की जाती है- 'वन्दे तद्गुण लब्धये'। आचार्यप्रवर का चिन्तन था कि जिस प्रकार शुद्ध वायु के सेवन से मनुष्य स्वतः स्वस्थ बनता है इसी प्रकार वीतराग की स्तुति से मनुष्य स्वयं वीतरागता को प्राप्त करता है। इसलिए आचार्यप्रवर ने वीतराग के प्रति की गई। स्तुतिप्रधान प्रार्थना का वैशिष्ट्य इन शब्दों में व्यक्त किया है- “वीतरागता की प्रार्थना में यह विशेषता है कि प्रार्थी प्रार्थ्य के समान ही बन जाता है। इस प्रकार की उदारता सिर्फ वीतराग में ही है।' बाह्य तप के साथ आभ्यन्तर तप की साधना को आप आवश्यक मानते थे- "आत्मा को पूर्णतः विशुद्ध बनाने के लिए बाह्य तप के साथ-साथ अन्तरंग तप की भी अत्यन्त आवश्यकता है। बाहर का तप इसलिए किया जाता है कि जो हमारा अन्तर विषय- कषायों की उत्तेजनाओं से आन्दोलित है, उद्वेलित है, हमारे भीतर मोह, ममता और मिथ्यात्व का प्राचुर्य है, प्राबल्य है, वह कम हो। " आपने तप के साथ संयम पर भी बल दिया, आपक चिन्तन था - " बिना संयम के जो तप है, वह वास्तविक तप नहीं है। " धर्म-साधना के लिए अमीर और गरीब को समान बताते हुए आपने फरमाया- “धर्म साधना के लिए किसी के पास एक पैसा भी नहीं है तो भी उसके पास तीन साधन हैं- तन, मन और पावन वचन । " किसी भी प्रकार की आध्यात्मिक साधना क्यों न हो, तन, मन और वचन का सुप्रणिधान आवश्यक है । आपने परिग्रह का | परिमाण करने पर बल देने के साथ अनीति एवं अन्याय से धन कमाने को अनुचित ठहराया- “बिना श्रम के, बिना न्याय के और बिना नीति के जो पैसा मिलाया जाता है, उससे कोई लखपति और करोड़पति तो हो सकता है, लेकिन वह पैसा उस परिवार को शान्ति व समाधि देने वाला नहीं हो सकता।" परिग्रह को अफीम समझकर गृहस्थ से उसकी मर्यादा करने की प्रेरणा की। परिग्रह में आपने दो बुराइयों का उल्लेख करते हुए फरमाया"परिग्रह का दूसरा नाम दौलत है, जिसका अर्थ है 'दो लत' अर्थात् दो बुरी आदतें । उन दो लतों में पहली लत है। हित की बात न सुनना और दूसरी लत है गुणी, नेक, सलाहकार और वन्दनीय व्यक्तियों को आदर न देना।" परिग्रह की लालसा शान्ति की शत्रु है। इस संबंध में आपका मन्तव्य था - "लालसा के पाश में बंधा मानव संग्रह की उधेड़-बुन में सब कुछ भूलकर आत्म-शांति खो बैठता है। " भगवान महावीर से गौतम गणधर ने प्रश्न किया- भगवन्! कौनसे दो कारण हैं जो उत्तम धर्म श्रवण में | बाधक हैं? प्रभु ने समाधान किया आरम्भ और परिग्रह | आपने परिग्रह एवं आरम्भ में संबंध स्थापित करते हुए कहा- "परिग्रह आरम्भ को छोड़कर नहीं रहता और आरम्भ से ही परिग्रह बढ़ता है। आरम्भ और परिग्रह. की मित्रता है, दोनों का आर्थिक गठजोड़ है। दोनों ऐसे भयंकर रोग हैं जो हमारी चेतना शक्ति को विकास का मौका नहीं देते।" इसलिए आपने सदैव आरम्भ और परिग्रह को कम करने एवं त्यागने की शिक्षा दी। इच्छा का परिमाण सुख एवं शान्ति के लिए आवश्यक है। ऐसा मन्तव्य आपके इस कथन से स्पष्ट है'इच्छा का परिमाण नहीं किया जाएगा और कामना बढ़ती रहेगी तो प्राणातिपात और झूठ बढ़ेगा, अदत्तग्रहण में भी वृद्धि होगी। कुशील को बढ़ाने में भी परिग्रह कारणभूत होगा। इस प्रकार असीमित इच्छा सभी पापों और
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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