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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ३३६ • महर्षियों ने धर्म का सार तीन बातों में कहा है -१. आत्मा को वश में करो, २. पर-आत्मा को अपने समान समझो ३. परमात्मा का भजन करो। • शरीर में आँख की चूक से कभी पैर में काँटा लग जाय, तो क्या फिर पैर आंख का भरोसा नहीं करेगा? समाज ___ में ऐसा ही सम्प हो तो अशान्ति नहीं होगी। • जो इच्छा से बेईमानी नहीं करे, स्वेच्छा से घूसखोरी, नफाखोरी एवं चोरी नहीं करे, मन से नशा नहीं करे वह स्वतंत्र है। • संयमी की शुद्ध साधना श्रावक के विवेक पर ही चल सकती है। • साधक को हर कार्य करते समय सजग रहना चाहिए। त्रुटि हो भी जाय तो उसके लिये पश्चात्ताप करना चाहिए। गलती करके न मानना या खुशी मनाना चोरी और सीनाजोरी करने जैसा है। महाविदेह की विशेषता साधना से है, भौतिक सम्पदा से नहीं। जैन समाज का धन प्रदर्शन के बदले ज्ञान में लगे तो समाज का हित हो सकता है। अर्थनीति जबसे धर्म पर प्रभुता करने लगी, संसार संघर्ष का क्षेत्र बन गया। मनष्य-जन्म में करणी नहीं की तो थली के उस जाट की तरह पळताना पडेगा जिसने तिटी रटाने के लिा फेंक दिए। परिग्रह को अफीम समझकर गृहस्थ इसकी मर्यादा करे । • सामग्री की अल्पता में भी संतोषी सुखी होता है और विशाल सामग्री में भी कामनाशील दुःखी होता है। भय, लज्जा और स्वार्थ से किया गया विनय कल्याणकर नहीं होता। तन का संयम रोग से और वाणी का संयम कलह से बचाता है। • वेशपूजा एवं नामपूजा के बदले गुणपूजा ही समाज को श्रेय की ओर ले जा सकती है। बिना साधन साध्य की प्राप्ति समझना भूल है। • सम्प्रदाय का आवेश भी मानव से कई पाप करा डालता है। सम्यग्ज्ञाता ही सम्यक् कर्ता हो सकता है। करोड़ों की सम्पदा मानव-मन में काम-क्रोध-लोभ के ताप को नहीं मिटा सकती। • हम वीतरागमार्गी तभी हो सकते हैं, जब राग-द्वेष को भुलाकर उपशम भाव की साधना करें। • अज्ञान मिटाने के लिए मोह का मन्द होना आवश्यक है, जो सामायिक साधना से ही सम्भव है। • ज्ञानपूर्वक पुरुषार्थ करो, दुःखमुक्ति दुष्कर नहीं है। • दृष्टि भोगप्रधान के बदले हितप्रधान बनायी जावे। • ममता से नरक और समता से मोक्ष-यही शास्त्रों का सार है। वेशपूजा एवं नाम पूजा के बदले गुणपूजा ही समाज को श्रेय की ओर ले जा सकती है। • ज्ञानादि चतुष्टय आत्म हित और समाज रक्षण के प्रमुख उपाय हैं।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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