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________________ द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ३३५ महापुरुष अपनी जगहितकारी प्रवृत्तियों और कल्याण कामना से स्वयं याद आते हैं, वे याद कराये नहीं जाते । त्यागी होने पर भी जब तक साधु छद्मस्थ है- आहार, विहार और संग का प्रभाव होता ही है । • गुरु और गुणीजनों की सेवा, बाल जन का संग-त्याग, स्वाध्याय और एकान्त चिन्तन भाव-निर्माण के साधन हैं। सद्भावों की लहरें कई बार आती हैं, परन्तु अनुकूल संग और वातावरण के बिना टिकती नहीं । जिसने सदाचार का पालन नहीं किया वह साहसी व निर्भय नहीं रह सकता । • • • शासन एवं धर्म-रक्षण का कार्य केवल साधुओं का ही समझना भूल है, साधु की तरह श्रावक संघ का भी उतना ही दायित्व है । श्रावक-श्राविकाओं के द्वारा स्वाध्याय अध्यात्मबल से पुष्ट होना चाहिए । • जरा सा भी कोई सामाजिक कार्य में चूका कि लोग उसकी अच्छाइयां भूलकर निन्दा करने लग जाते हैं । सामाजिक-जीवन का यह दूषण है । सद्दृष्टि के अभाव में शास्त्र शस्त्र बन जाता है। लोभ-मोह पर जिसका अंकुश है वह स्व-पर का हित कर सकता है। सैकड़ों आदमी आपके सम्पर्क में आते हैं। यदि व्यवहार के साथ अहिंसा, निर्व्यसनता आदि का प्रचार करें तो अच्छा काम हो सकता है। · • • • साधक महिमा - पूजा और सत्कार को भी परीषह मानता है। उसमें प्रसन्न होना, फूलना एवं अहंकार करना अपनी कमाई को गंवाना है । • • • गृहस्थ चाहे पूर्ण पाप या आरम्भ परिग्रह का त्यागी नहीं है, फिर भी उसका लक्ष्य पाप घटाने का होना चाहिए। वीतरागवाणी का यह महत्त्व है कि वह सुख-दुःख के कारणों को समझाकर प्राणी को कुमार्ग से बचाती एवं सुमार्ग में जोड़ती है। • जो मन में कुछ और रखता है तथा बोलता कुछ और है, वह धर्म का अधिकारी नहीं होता । • मनमाना या इच्छानुकूल नहीं चलकर स्व- आत्मा के नियन्त्रण में चलना ही स्वतन्त्रता है । गुरु से कपट करने वाला शिष्य शिक्षा के अयोग्य होता है । कामी सौन्दर्य में कृत्रिमता करता है । यदि एक विद्वान् सही अर्थ में धर्माराधन से जुड़ जाता है तो वह अनेक भाई-बहनों के लिए प्रेरणा का स्तम्भ बन जाता I • • • संघ का कर्त्तव्य गुणी जन का आदर करना है । गुणप्रेमी अपना कर्तव्य समझकर सत्कार-सम्मान करे या गुणानुवाद करे, परन्तु साधक को उसमें निर्लेप रहना चाहिए । • • असंयम दुःख और संयम सुख का कारण है। 1 प्रतिदिन सामायिक का अभ्यास विषमभाव को घटाकर मन में समभाव सरिता बहाने वाला है।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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