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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड ३०३ भवन के पीछे बरामदे में महामंत्र नमोकार का अखण्ड जाप प्रारम्भ कर दिया। दर्शनार्थी बन्धु बिना प्रेरणा के जाप में बैठकर अपने आपको कृतकृत्य समझते। पूज्य गुरुदेव के तप यज्ञ के अवसर पर सामूहिक रूप से समवेत-स्वर में | जाप करते हुए श्रावकगण पुरातन युगीन ऋषि-आश्रम का बोध कराते । पूज्य गुरुवर्य इस मुत्युञ्जय यज्ञ में अपने | शरीर को होम रहे थे। संत-सतीगण भी आगम पाठों का उच्चारण कर रहे थे तो भक्तगण भी जप व तप द्वारा अपनी-अपनी आहुति दे रहे थे। जहाँ पूज्य गुरुदेव का समग्र जीवन, उनका प्रभापुञ्ज व्यक्तित्व व महनीय कृतित्व सदैव आगत व्यक्तियों को प्रेरित करता रहा, वहाँ आज समाधिमरण की ओर बढ़ाये गये उनके कदम अपना अद्भुत प्रभाव डाल रहे थे। इन | तपोपूत महासाधक के आत्म-तेज को दृष्टिगत कर बिना प्रेरणा के ही प्रत्येक आगत दर्शनार्थी की यही भावना हो उठती कि पूज्य गुरुदेव के इस मृत्युञ्जय-यज्ञ में उसे भी तप एवं नियम का संकल्प कर अपनी ओर से आहुति | अवश्य देनी है। धन्य गुरुदेव ! आज आप भले ही मौनस्थ हैं, पर आज आपका यह तपोमय मौन प्रवचन से भी | अधिक प्रेरणा प्रदायी बन हजारों पतितों को पवित्र कर रहा है। • मुसलमान भाइयों की अनूठी श्रद्धा-भक्ति संथारा काल में ही मुसलमानों की ईद का प्रसंग उपस्थित हुआ। अंहिसा के पुजारी आचार्य देव जिन्होंने | सदैव छह काया के जीवों को अभयदान दिया, करुणा व दया से जिनका रोम-रोम आप्लावित था, प्राणिमात्र के प्रति जिनके हृदय में सहज मैत्री व स्नेह की भावना थी, ऐसे पूज्य भगवन्त के इस महात्याग से प्रेरित हो, मुस्लिम भाई-बहिनों के हृदय भी परिवर्तित हो गये। रोजों की समाप्ति के अवसर पर वे सभी मुस्लिम भाई- बहिन, जिनका सिर खुदा के सिवाय किसी के आगे झुकता नहीं, इस अनूठे फकीर के दर्शन करने व उनके आगे सिजदा करने स्वतः उपस्थित हुए और लगभग पौन घण्टे तक दर्शन होने तक बिना धैर्य खोये अनुशासित पंक्ति में खड़े रहे। आत्म-समाधिस्थ उन योगिराज के मंगल दर्शन कर उन मांस-विक्रेता भाइयों के मन में सहज ही अहिंसा व करुणा के संस्कार जागृत हुए और उन्होंने पूज्य गुरुराज के संथारा चलने तक मांस-विक्रय व पशुवध करने का त्याग कर दिया। यह था अहिंसा भगवती एवं महासाधक के अतुल आत्मतेज व विमल संयम-साधना का साक्षात् स्वरूप। वस्तुत: जहाँ भी महापुरुष विराजते हैं वहाँ का स्थान ही नहीं समूचा वातावरण ही निर्मल बन जाता है, सभी प्राणी परस्पर वैर-विरोध व हिंसा को भूल कर अलौकिक शांति का अनुभव करते हैं। हिसक भी अहिंसक बन जाते हैं। यही कारण था कि मांस-विक्रय जिनकी आजीविका है उन भाइयों ने भी अपनी आजीविका का त्याग करके अबोध प्राणियों को अभयदान देकर इन महापुरुष के प्रति एक अनूठी श्रद्धा व्यक्त की। जहाँ बड़े से बड़े भक्त भी अपना व्यवसाय सहज बन्द नहीं कर सकते, वहाँ संथारे की अवधि तक अपनी आजीविका का भी त्याग कर उन मुस्लिम भाइयों ने अत्युत्कृष्ट अश्रुतपूर्व आदर्श उपस्थित किया। जिसने भी सुना, उन भाइयों के त्याग के अनुमोदन एवं पूज्य गुरुदेव के पुण्य प्रताप की प्रशस्ति किये बिना नहीं रह सका। धन्य गुरुदेव ! आपने अपनी साधना के प्रताप से अनहोनी (दुष्कर) को होनी कर दिखाया। भगवन् ! आप जैसे महापुरुष के लिये कोई भी कार्य अशक्य नहीं है। हिंसा से ही अपना जीवन व्यापार चलाने वाले भाई-बहिन नवीन तप-त्याग अंगीकार कर अपने जीवन को आगे बढ़ाएँ तो इसमें क्या आश्चर्य ? अभयदान के इस महान् कार्य में भाई श्री अल्ताफजी व निमाज निवासी अनन्य गुरु भक्त श्री तेजराजजी, गणेशमलजी भण्डारी की प्रबल प्रेरणा
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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