SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 364
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ३०२ जिसने भी सना, उसे जो भी साधन मिला, उससे शीघ्रातिशीघ्र पूज्य चरणों में पहुँचने हेतु चल पड़ा। दूर-दूर से दर्शनार्थी उमड़ उमड कर आने लगे, कहीं मैं दर्शन-लाभ से वंचित न रह जाऊँ इस भावना से मानो जो जहाँ खड़ा था, वहीं से दौड़ पड़ा। निमाज ग्राम महानगर बन गया,गंगवाल भवन तपोधाम बन गया। आसपास के क्षेत्रों से जैनेतर बन्धु भी विशाल संख्या में इस योगिवर्य की जीवित आत्म-समाधि को देखने व पूज्यराज के पावन दर्शन से अपने आपको धन्य करने उमड़ पड़े। दर्शनार्थियों की भारी भीड़ गुरुदेव के दर्शन को आतुर थी, हर कोई| शीध्यतिशीघ्र दर्शन पाने को तत्पर था। अत: उन भावुक भक्तों को नियन्त्रित करना अत्यन्त कठिन था, परन्तु संघ के कार्यकर्ताओं एवं निमाज श्री संघ के सेवाभावी स्वयंसेवकों ने अचूक सूझबूझ एवं समन्वित कार्यशैली से कुशल व्यवस्था की। यह ध्यान रखा गया कि सभी दर्शनार्थी योगिराज के दर्शन कर सन्तुष्ट हो सकें, अनुशासन बना रहे व आत्मभाव में लीन पूज्यवर्य की आत्म-साधना में भी कोई व्यवधान न हो। संघ के अधिकारीगण, कार्यकर्तागण अपनी अपनी व्यस्त दिनचर्या को छोड़ अपने आराध्य गुरुदेव की इस अन्तिम सेवा के लाभ हेतु उपस्थित हो गये, एवं वहाँ रुक कर व्यवस्था सम्पादन का, सेवा का लाभ लेने लगे। सभी आगत दर्शनार्थी बन्धु गुरु-दर्शन का लाभ व्यवस्थित व अनुशासित रूप से ले रहे थे तथा इस अपार जनसमूह की सेवा में निमाजवासी पूर्ण समर्पण भाव से संलग्न थे। किसी का भी मन वहाँ से लौटने को ही नहीं होता था। सभी भक्तगण व वातावरण मानों गुरु-चरणों में दत्तचित्त हो गये। जब सभी भक्तजन अपने आराध्य की सेवा में समर्पित थे तो गुरुभक्त नागराज (सर्प) भी कैसे पीछे रहते ! जिस दिन पूज्य गुरुदेव ने संथारा ग्रहण किया, उसी दिन मध्याह्न के समय सुशीला भवन में नागराज दृष्टिगत हुए पर बिना किसी को कोई नुकसान पहुँचाये, विलुप्त हो गये। षटकाया-प्रतिपालक संतजनों एवं रोम-रोम से प्राणिमात्र के प्रति करुणा सरसाने वाले, मैत्री, प्रेम, दया एवं स्नेह-सुधा के सागर पूज्य भगवन्त के दर्शनार्थ नागराज का आना सहज ही था, कोई आश्चर्य की बात नहीं। जिसे भी इस घटना की जानकारी मिली, हर व्यक्ति अपनी-अपनी सोच के मुताबिक अटकलें लगाने लगा। कुछ व्यक्ति इसे धरणेन्द्र का दर्शन हेतु पदार्पण, कुछ इस घटना को सतारा में पूज्य भगवन्त द्वारा बचाये गये नाग का आगमन एवं अपने आराध्य प्रभु के इस अन्तिम साधना-काल में दर्शन करना स्वीकार कर रहे थे। गुरु भगवन्त के संथारा-ग्रहण करने के महासंकल्प के इस अवसर पर अपना अनुमोदन व्यक्त करने में प्रकृति | भी पीछे नहीं रही। जब प्रत्याख्यान स्वीकार किये गये उस समय आकाश बिलकुल साफ था, वर्षा का मौसम भी नही था। अपराह्न अनायास ही गगन मेघाच्छादित हो गया एवं ठंडी हवाओं के साथ मूसलाधार वर्षा हुई। आगन्तुक दर्शनार्थियों ने बताया कि यह वर्षा भी मुख्यत: निमाज के इलाके में ही हुई है। अनायास वर्षा से ऐसा लग रहा था मानो देवराज इन्द्र भी गड़गडाहट के साथ आत्मसमाधिस्थ श्रमणरत्न पूज्य हस्ती के गुणगान व्यक्त कर रहे हों। प्रकृति भी इन योगिवर्य के चरणों में अपने श्रद्धा सुमन समर्पित कर शीतलता का सुखद संयोग प्रस्तुत कर रही थी। वस्तुत: महापुरुष जहाँ-जहाँ विराजते हैं, वहाँ-वहाँ सभी प्रतिकूलतायें भी अनुकूलताओं में परिणत हो जाती हैं तो फिर भला यहाँ तो साधना के साक्षात् साकार स्वरूप आचार्य हस्ती श्रमण-साधना के शिखर पर आरुढ़ हो समाधि में लीन थे। उनके प्रबल पुण्यप्रताप व साधना के आगे नागराज (सर्प), देवेन्द्र (वर्षा) अथवा प्रकृति भी गुणानुवाद कर रहे हों तो कोई आश्चर्य नहीं। • अखण्ड जाप ___ अपने आराध्य गुरुवर्य की इस अप्रतिम साधना का अनुमोदन करने, वहाँ आगत दर्शनार्थी सुश्रावकों ने भी
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy