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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं २९० खमतखामणा के समाचार दिला दो। गुरुवर्य की आज्ञा का पालन हुआ और उनका जिन-जिन से पुराना और गहरा सम्बन्ध रहा, उनकी सेवा में खमतखामणा अर्ज कराने हेतु श्रावकों द्वारा पत्र प्रेषित कर दिये गये। ९ मार्च ९१ को कुशालपुरा पहुंचे। बाहर से दर्शनार्थी उमड़ पड़े। इन सबके बीच भी गुरुदेव अपनी आत्म-साधना में निरन्तर निरत थे। इसी दिन डॉ. एस. आर. मेहता भी दर्शनार्थ पहुँचे। उन्होंने स्वास्थ्य के निरीक्षण-परीक्षण के पश्चात् स्वास्थ्य की दृष्टि से खुराक एवं दवा की आवश्यकता बतलाई, पर गुरुदेव ने उन्हें भी यह कहा कि इन सबकी अब मुझे रुचि नहीं है। डॉक्टर सा. एवं मुनिजन के अत्याग्रह से आपने अनिच्छित भाव से ही पथ्य ग्रहण करना स्वीकार किया। • निमाज में पदार्पण : निमाजवासी पुलकित दिनांक १० मार्च ९१ को कुशालपुरा से निमाज में पदार्पण हुआ। निमाज ग्रामवासी गुरुदेव के आगमन पर हर्षित एवं प्रफुल्लित थे, नर-नारियों के समूह जयनिनादों के साथ अगवानी हेतु उपस्थित थे। देखते-देखते ही स्थानीय व अभ्यागत बन्ध आते गये और कारवां बनता गया। गरुदेव के पदार्पण से जैसे निमाज गाँव का कोना-कोना खिल उठा, समूचा वातावरण ही उन महापुरुष के शुभ परमाणुओं के संसर्ग में आकर पवित्र हो गया। गाँव का चप्पा-चप्पा गुरुदेव के आगमन से महक रहा था, वहाँ के कण-कण में हर्ष व्याप्त था। भंडारी परिवार का तो कहना ही क्या ? बच्चा-बच्चा खुशी से झूम रहा था, आँखों में आये हर्षाश्रु रोम-रोम से गुरुदेव के प्रति कृतज्ञता व्यक्त कर रहे थे। गुरुदेव के पीछे-पीछे विशाल जनसमुदाय का यह काफिला निमाज की गलियों, बाजारों से होता हुआ, मुख्य मार्ग पर स्थित गंगवाल भवन (सुशीला-भवन) में आकर धर्म-सभा में परिणत हो गया। ___धर्म-सभा में आचार्य गुरुदेव अपनी शिष्य-मण्डली के बीच नक्षत्र-मण्डल के मध्य दिव्य आभायुक्त सुधाकर के सदृश सुशोभित हो रहे थे। मुखमण्डल पर दिव्य तेज था। इस अन्तिम प्रवचन सभा को सम्बोधित करते हुए उन युगमनीषी महापुरुष ने अपनी धीर, वीर, गंभीर शैली में फरमाया-"मैंने अपना आश्वासन संतों के सहयोग से पूरा कर दिया है, आज मैं उससे मुक्त हो गया हूँ।" आश्वासन-पूर्ति के आत्म-सन्तोष से ‘सागरवरगम्भीरा' उस महापुरुष की आंखें भर आईं। सभी लोग भावविह्वल हो गये, सन्तों का हृदय गद्गद् हो गया। कैसा करुणासिक्त दृश्य था। इसी दिन मधुर व्याख्याता श्री ज्ञानमुनिजी म.सा. व श्री दयामुनिजी म.सा. भी जिनका चातुर्मास रीया था, | गुरुचरण-सेवा में पधार गये। आज सभी शिष्यगण अपने परमाराध्य गुरुवर्य की सान्ध्यवेला में सेवा हेतु समुपस्थित मध्याह्न में जयपुर श्री संघ ने जयपुर स्थिरवास हेतु पधारने की भावपूर्ण विनति प्रस्तुत की और निवेदन किया-"भगवन् ! स्वास्थ्य आदि सुविधाओं की दृष्टि से जयपुर सर्वोत्तम स्थान है।" इस पर पूज्य आचार्य भगवन्त ने यही फरमाया-“मैं अब ठिकाने आ गया हूँ, कहीं जाने के भाव नहीं, यदि स्थिरवास का अवसर रहा तो जोधपुर को प्राथमिकता दे रखी है।" दिनांक ११ मार्च ९१ को प्रातः लगभग १० बजे सभी सन्तों एवं प्रमुख श्रावकों को संघ-सम्बन्धी भोलावण दी। बार-बार भोलावण देने पर अन्तेवासी गौतममुनिजी म.सा. ने सहज ही गुरुदेव से निवेदन किया-“भगवन् आप अभी से ही बार-बार भोलावण क्यों दे रहे हैं? अभी तो आप शतायु-चिरायु हो हमें अपनी वात्सल्यपूर्ण शीतल छाया प्रदान करते रहेंगे। आपके सान्निध्य में हमें क्या चिन्ता?” इस पर आत्मसाधक गुरुदेव ने अपना वरदहस्त मस्तक पर रखते हुए अत्यन्त दुलार के साथ अपने स्नेह सुधासिक्त वचनों से फरमाया "भाई गौतम ! अभी तो मैं
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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