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प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
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• मुझे निमाज पहुँचना है
__ इसी बीच गुरुदेव ने संतों को बिना कहीं ज्यादा रुके शीघ्र निमाज पहुँचने के भाव व्यक्त कर दिये। संतों ने । आचार्य भगवन्त की भावना के अनुसार शीघ्र निमाज पहुँचने का लक्ष्य बना लिया और सुदूर विराजित रत्नवंशीय सभी संत-सतीगण को गुरुदेव के दर्शनार्थ सेवा में निमाज पहुँचने के संकेत करवा दिये गये। ३ मार्च ९१रविवार चैत्र कृष्णा तृतीया को गोटावत भवन ठहरते हुए रात्रिवास गुरुदेव ने समिति भवन में किया। इसके अनन्तर दो दिन || सोजत रोड विराजे। दो दिन पश्चात् जब विहार की चंचलता के भाव दर्शाये तो स्थानीय श्रावकों ने अत्याग्रहपूर्वक कुछ दिन विराजने की प्रार्थना की, परन्तु गुरुदेव श्री का एक ही प्रत्युत्तर था- "मुझे निमाज पहुँचना है।" उन भावुक || भक्तों को क्या मालूम था कि गुरुदेव क्या सोच कर इतनी शीघ्रता कर रहे हैं? यहां तो उस अध्यात्मयोगी ने पहले ! ही अपनी दिशा निर्धारित कर ली थी।
सोजत से बगड़ी, चंडावल होते हुए ८ मार्च ९१ को पीपल्या पधारे। सन्तों के द्वारा आहार के लिये निवेदन ! करने पर आचार्य श्री ने मना कर दिया। बार बार आग्रह करने पर फरमाया -"भाई, मुझे आहार करने की रुचि नहीं है, तुम आग्रह मत करो।” सन्तों के अत्याग्रह पर सन्तों के हाथ से उनके सन्तोष हेतु अल्प आहार लिया, किन्तु || प्रतिपल जागृत उन महापुरुष को अब मात्र अपनी आत्म-साधना का ही तो ध्यान था- फरमाने लगे-"मैं खाली | नहीं जाऊँ, इसका सेवारत मुनिजन पूरा खयाल रखें। शरीर का नहीं, मेरी समाधि बनी रहे, इसका ध्यान रखें।" कितनी उच्च भावना, कितनी सजगता, कैसा देहोत्सर्ग, कैसी समाधि भावना। अन्तज्योति के आलोकपुञ्ज उन महापुरुष ने आगे फरमाया- “मेरी चिन्ता मत करना, शरीर तो नाशवान है।" फिर भोलावण रूप में बोले- आहार, स्थानक की गवेषणा का पूरा ख्याल रखना, पूज्य श्री रत्नचंदजी महाराज साहब की २१ नियम की समाचारी का पूरा पालन करना, प्रवर्तिनी महासती श्री बदनकंवरजी, उप प्रवर्तिनी महासती श्री लाडकंवरजी प्रभृति सती-मंडल बराबर संयम आराधना करती रहें।" | • मुझे मेरा समय सामने दिख रहा है
पूज्य गुरुदेव अपने दृढ़ निश्चय के अनुसार निरन्तर अपने कदम अपने अन्तिम मनोरथ की ओर बढ़ा रहे थे। इसी क्रम में उन्होंने दो-दो,तीन-तीन घंटे के सागारी प्रत्याख्यान करने प्रारम्भ कर दिये । साथ ही अपनी उत्कृष्ट भावना | प्रदर्शित करते हुए फरमाया-“मेरी संथारा करने की भावना है। मानमुनिजी म.सा. से पूछ लें एवं चतुर्विध संघ की | अनुमति ले लें। उस समय श्रद्धेय श्री मानमुनिजी म.सा. विहार क्रम में पीछे-पीछे चल रहे थे, अतः उन्हें भी सेवा में पधारने का संकेत कर दिया गया। संथारे की बात के ही क्रम में सभी सन्तों ने समवेत स्वर में निवेदन किया-"भगवन् ! अभी इतनी क्या जल्दी है? आपका स्वास्थ्य भी ठीक है, डॉक्टर एवं ज्योतिषी की राय में भी ऐसे लक्षण दृष्टिगोचर नहीं होते, फिर आप ऐसा कैसे सोच रहे हैं?” इस पर आचार्य भगवन्त ने दृढ़ आत्म-विश्वास के साथ फरमाया “भाई, ज्योतिषी की गणित एवं डॉक्टर की बात मुझे फैल लग रही है। मुझे मेरा समय सामने दिख रहा है।" जहाँ सन्त चिन्तित थे, वहीं गुरुदेव अपनी अजस्र आत्मिक ऊर्जा के ऊर्वीकरण के चिन्तन में तल्लीन थे। वे तो कहाँ क्या हो रहा था, इससे सर्वथा बेखबर अपनी ही धुन में मस्त, अनवरत आत्महित में सन्नद्ध तथा जीवन के सन्ध्याकाल के बारे में संजोये सार्थक स्वप्न को साकार करने की ओर उन्मुख थे। इसी सन्दर्भ में आपश्री ने अपनी सरलता, लघुता एवं निरभिमानता का परिचय देते हुए संकेत दिया कि अमुक-अमुक सन्तों को
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