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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड २६५ म.सा. आदि पूज्या महासतीवृन्द के पावन-सान्निध्य का लाभ समय-समय पर इस क्षेत्र को मिलता रहा है। पूज्यपाद आचार्यप्रवर के चातुर्मासार्थ पदार्पण से ही अजमेर में धर्मोद्योत का अपूर्व ठाट लग गया। व्रत-प्रत्याख्यान व तपस्या का वातावरण निर्मित हो गया। चातुर्मास काल में लाखन कोटड़ी व महावीर कॉलोनी दोनों ही क्षेत्र आप श्री के विराजने से लाभान्वित हुए। स्थण्डिल भूमि की सुविधा एवं शान्त वातावरण की दृष्टि से पूज्यप्रवर महावीर कॉलोनी में अधिक विराजे । सेवाभावी महासती श्री संतोष कंवरजी म.सा. आदि ठाणा का भी अजमेर में चातुर्मास होने से बहिनों में भी विशेष धर्म जागृति रही। चातुर्मास में तपस्या का ठाट लगा रहा। आचार्य प्रवर के सान्निध्य में अठाई तप व सैकडों तेले हुए। आप श्री के पावन दर्शन-वन्दन, प्रवचन-श्रवण तथा सान्निध्य-लाभ लेने हेतु विभिन्न क्षेत्रों के दर्शनार्थियों का सतत आवागमन बना रहा। परम पूज्य गुरुवर का सदा यही चिन्तन रहता कि संत-समागम जीवन-निर्माणकारी हो व त्याग-प्रत्याख्यान की ओर गतिमान होने में सहायक हो, अन्यथा यह भ्रमण मात्र है, जो आगन्तुक व स्थानीय दोनों के ही समय व श्रम का अपव्यय है। चातुर्मास काल में अनेक बार ऐसे अवसर आये कि एक नहीं अनेक संघों के आतिथ्य सत्कार का अजमेर श्री संघ को लाभ मिला। ऐसे ही अवसर पर अपने सारगर्भित उद्बोधन में आपश्री ने फरमाया-"दर्शनार्थी बन्धु यहाँ आगमन को मेला नहीं समझें, अपितु सन्त-सतियों के त्यागमय जीवन एवं साधना से कुछ न कुछ प्रेरणा ग्रहण करें, जिससे आपका व आपके परिजनों का जीवन शान्त, सुखी, समृद्ध और सेवाभावी बन सके।" करुणाकर गुरुदेव का जीवनादर्श था - सत्त्वेषु मैत्री, गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्, माध्यस्थभावं विपरीतवृतौ ।” मैत्री, प्रमोद एवं माध्यस्थ भाव के धनी करुणाकर गुरुदेव के हृदय में प्राणि- मात्र के प्रति अनुकम्पा व असीम करुणा थी। आपके जीवन की मंगल कामना थी-“सुखी रहें सब जीव जगत के कोई कभी न घबरावे।" किसी दुःखी तड़फते प्राणी को देखकर आपका मन करुणार्द्र हो जाता। ७ अगस्त को स्थंडिल पधारते अतीव कृशकाय एक गाय को देखकर आपके करुणार्द्र कोमल हृदय की अनुकम्पा भावना प्रवचनामृत में प्रकट हुई। अनुकम्पा सम्यक्त्व का लक्षण है। करुणाकर के अनुकम्पाभाव सम्पूरित उद्बोधन से प्रेरणा प्राप्त कर स्थानीय संघ जीव दया की ओर प्रवृत्त हुआ। दिनांक ३० सितम्बर से ४ अक्टूबर तक यहां विशिष्ट स्वाध्यायियों एवं साधकों का शिविर आयोजित हुआ। साधना के शिखर आचार्यदेव ने स्वाध्यायियों एवं साधकों को आत्म-चिन्तन व आत्म-निरीक्षण की सीख देकर उनका पथ प्रशस्त किया। स्वाध्यायी बन्धुओं ने अनेक संकल्प ग्रहण कर क्रिया के क्षेत्र में अपने कदम बढ़ाये। स्वाध्यायी वर्ग द्वारा ग्रहण किये गये संकल्प इस प्रकार हैं - १. प्रतिवर्ष कम से कम एक नवीन धार्मिक ग्रंथ का वाचन करना। २. प्रतिवर्ष कम से कम एक नया स्वाध्यायी बनाना। ३. कोर्ट कचहरी के मुकद्दमे बाजी से दूर रहना। ४. दहेज का ठहराव नहीं करना। ५. चमड़े से बने बेग, जूते, पर्स आदि काम में नहीं लेना। ६. मृत्यु भोज का न तो आयोजन करना, न ही उसमें भाग लेना।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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