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________________ xxvi आमुख करणी में भिन्नता विसंवाद है, जिसे साधक का दोष माना जाता है। पूज्यप्रवर उतना ही कहते थे, जितना कर | पाते थे। बढ़चढ़ कर बोलना आपको विभाव प्रतीत होता था । श्रावकों को भी आप कथनी एवं करणी में एकरूपता | रखने की प्रेरणा करते थे। इसी प्रकार आप अनुशासनप्रिय थे। इसके लिए आप स्वानुशासन पर बल देते थे। करुणाशील होकर भी अनुशासन एवं परम्परा की रक्षा में आप कठोर थे । फ फ फ फ 5 अंधविश्वास, अशिक्षा, अज्ञान से आक्रान्त, किन्तु विज्ञान के कारण सुख-सुविधाओं के लिए लालायित | इस युग के लोगों को धर्म का बोध किस प्रकार दिया जाए, इसे समझने वाले आप युगमनीषी सन्त थे । आपने अंधी मान्यताओं में जकड़े मानव समाज को स्वाध्याय के माध्यम से अपने भीतर ज्ञान ज्योति प्रज्वलित करने की प्रेरणा की तथा अपरिमित इच्छाओं, वासनाओं, राग-द्वेष, अहंकार, माया, लोभ आदि विकारों के कारण तनावग्रस्त मनुष्य को समभाव की प्राप्ति हेतु सामायिक की प्रयोगात्मक साधना प्रदान की। जन-जन को व्यसनों से मुक्त बनाने की आवश्यकता अनुभव की । बालक-बालिकाओं में सत्संस्कारों के वपन के लिए समाज को सावधान बनाया। नारी शिक्षा एवं सदाचरण की महती प्रेरणा, युवकों में धर्म के प्रति आकर्षण एवं समाज-निर्माण में उनकी शक्ति के सदुपयोग को एक दिशा, समाज में फैली विभिन्न कुरीतियों यथा- आडम्बर, वैभव-प्रदर्शन, दहेज - माँग आदि पर करारी चोट, विभिन्न ग्राम-नगरों में व्याप्त कलह एवं मनमुटाव के कलुष का | प्रक्षालन, समाज के कमजोर तबके एवं असहाय परिवारों को साधर्मि वात्सल्यपूर्वक सहयोग की प्रेरणा आदि अनेक महनीय कार्य आपको युगमनीषी एवं युगप्रभावक महान् आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। आचार्य श्री ने मनुष्य की ज्ञान-चेतना को जागृत करने का प्रयास किया। साथ ही उन्होंने मनुष्य की आदतों एवं प्रवृत्तियों को भी सम्यक् दिशा प्रदान करने का बीड़ा उठाया। प्रदीप्त दीपक ही किसी अन्य दीपक को | प्रज्वलित करने में समर्थ होता है। आचार्य श्री ने व्यक्ति और समाज में व्याप्त अनेक बुराइयों को दूर करने के लिए स्वाध्याय और सामायिक का शंखनाद किया। ज्ञान और क्रिया को आपने स्वाध्याय और सामायिक का प्रायोगिक एवं व्यावहारिक रूप दिया जिसे लोगों ने विशाल स्तर पर अपनाया। उन्होंने जनता को व्यापक दृष्टि दी तत्त्वज्ञान को समझने हेतु शिक्षित समाज को आगम शास्त्रों एवं आध्यात्मिक ग्रन्थों का स्वाध्याय करने की | प्रेरणा की। जैसी जिसकी पात्रता थी उसे वैसी ही प्रेरणा करना आपका स्वभाव था। थोकड़ों में रुचि रखने वाले | लोगों को थोकड़ों का मर्म समझाया। नौकरीपेशा लोगों में सम्यक् सोच को जन्म देने एवं पुष्ट करने के लिए प्रतिदिन नियमित रूप से जीवन को ऊँचा उठाने वाले साहित्य का स्वाध्याय करने की आपकी प्रेरणा सफल | रही। आचार्य श्री ने लोगों की चेतना से जुड़कर उन्हें निरन्तर ऊंचा उठाने का जो भावप्रवण प्रयत्न किया उससे | अनेक लोग जुड़ते चले गए। आचार्य श्री का चिन्तन था कि जब तक व्यक्ति स्वयं सत्साहित्य का स्वाध्याय नहीं करेगा, तब तक उसमें सहज एवं स्थायी वैचारिक परिवर्तन संभव नहीं होगा। स्वाध्याय को आप व्यक्ति के आन्तरिक परिवर्तन का अमूल्य साधन मानते थे । यद्यपि स्वाध्याय का अर्थ स्व अर्थात् आत्मा का अध्ययन होता है, किन्तु स्वाध्याय की इस श्रेणी तक पहुंचने में सत्साहित्य का अध्ययन सहायक होने से उसे भी स्वाध्याय कहा गया है। यह स्वाध्याय व्यक्ति में न केवल अध्यात्म चिन्तन का बीज वपन करता है, अपितु यह उसमें नैतिक जीवन मूल्यों और पारस्परिक सौहार्द को भी विकसित करता है। आचार्य श्री जानते थे कि किसी के जीवन को अन्य कोई नहीं बदल सकता, व्यक्ति स्वयं अपने जीवन का निर्माता होता है, किन्तु दूसरों का प्रेरक निमित्त उसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। संत महात्माओं की संगति भी व्यक्ति के जीवन-निर्माण में प्रेरक निमित्त होती है, किन्तु यह संगति सदैव सहज उपलब्ध नहीं होती। सत्साहित्य का अध्ययन भी महत्त्वपूर्ण प्रेरक निमित्त बनता है, जो कि
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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