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________________ - - - - - :-- -1":" - आमुख XXV पूर्ण नियन्त्रण था। आहार भी आप अल्प ही करते थे। स्वाद पर विजय इतनी थी कि पानी में रोटी चूरकर खा । लेते थे। ब्रह्मचर्य की साधना के लिए मिर्च-मसाले युक्त आहार का वर्जन रखते थे। स्वयं गुणसमुद्र होने के बावजूद अन्य महापुरुषों, सन्तों, सतियों, श्रावकों, श्राविकाओं या जनसाधारण के गुणों का जब आप अपनी निर्मल प्रज्ञा के साथ भीतरी नयनों से अवलोकन करते या विश्वस्त आनन से उनका श्रवण करते तो आपका मुख मण्डल प्रमोद के भाव से भर जाता। गुणियों के प्रति प्रमोद का यह अनूठा रूप आपके गुणों को कई गुणा करता हुआ परिलक्षित होता था। इससे आपकी सरलता, निरभिमानता एवं लघुता में महानता का भाव झलकता था। दूसरों की निन्दा-विकथा का श्रवण करने में न तो आपके कर्ण ही तत्पर होते थे, न मन में ऐसे वचनों के लिए कोई स्थान होता था। धर्म एवं अध्यात्म के रसिकों को निन्दा का रस कीचड़ के समान बदबूदार एवं कलंकित करने वाला प्रतीत होता है। षट्काय के प्रतिपाल, प्राणिमात्र के अभयदाता सन्त, दःखी एवं अज्ञानी प्राणियों के प्रति करुणा से आप्लावित न हों, ऐसा कैसे सम्भव है। जन-जन के जीवन-निर्माण के अभिलाषी, अज्ञान-अशिक्षा और अंधविश्वास से जनित अंधकार को दूर करने के प्रति भावनाशील चरितनायक को कइयों ने कृपालु, कृपानाथ, !! करुणानिधान,करुणाकर जैसे शब्दों से सम्बोधित किया है। आत्मचेतना के विकास के साथ संवेदनशीलता अथवा करुणा का विकास स्वतः होता है। 'सत्त्वे के महान साधक आचार्यप्रवर का प्राणिमात्र के प्रति करुणाभाव था। जिस प्रकार भगवान महावीर ने समस्त जीवों की रक्षा के लिए प्रवचन फरमाया, उसी प्रकार जगत के प्रत्येक प्राणी के विकास हेतु आपकी वाणी से अमृत टपकता था। दीन-दुःखियों एवं अज्ञानियों को देखकर आपका हृदय दयाई हो उठता था तथा आप साघु-मर्यादा में रहकर उसके कष्ट-निवारण के लिए यथोचित मार्गदर्शन करते थे। कई बार आप प्रवचन में दीन-दःखियों की सेवा करने की प्रेरणा करते थे। आपका स्वल्प वचन ही श्रावकों द्वारा कृपाप्रसाद समझा जाता था। आप मौनसाधना में विराजे हए भी दर्शक के अन्तर्हृदय में प्रेरक बनकर बोलते थे। आपके सान्निध्य में बैठने मात्र से ही चित्त में प्रफुल्लता का अनुभव होता था एवं नियम-व्रत अंगीकार करने की स्फुरणा जगती थी। आचार्य श्री जब अपनी मौन साधना से उठते तो श्रद्धाल जन उनके श्रीमुख से नियमित स्वाध्याय,सामायिक या अन्य व्रत नियम अंगीकार करके पुलकित हो उठते थे। वे किसी को जबरदस्ती नियम अंगीकार कराने के हिमायती नहीं रहे। जो भी नियम कराते उसमें नियमकर्ता की पात्रता एवं व्यावहारिकता का ध्यान रखते थे। गर्भवती महिला को उपवास कराना, किशोर बालक को माता-पिता की आज्ञा के बिना ब्रह्मचर्य के नियम दिलाना आदि कई नियम आप व्यावहारिक नहीं मानते थे। आपकी सझबूझ, समझाइश एवं साधना के कारण पामर व्यक्ति भी शरण में आकर शान्ति का अनुभव करते। आचार्य श्री ने उनके प्रति कभी घृणा या वितृष्णा का भाव नहीं दिखाया, अपितु उनमें भी वे पात्रता की तलाश करते। यथायोग्य उनके हृदय को उर्वर बनाते और एक दिन वे भी नतमस्तक होकर गुरुदेव के चरणों में नियम अंगीकार करने की अभिलाषा व्यक्त करते थे। रत्नसंघ-परम्परा के आचार्य होते हुए भी आप मूल में भगवान महावीर के शासन या जिनशासन के संरक्षक थे। अन्य परम्पराओं के साथ-साध्वियों को समय-समय पर सहयोग कर आपने जिनशासन के प्रति अपना कर्त्तव्य सम्पादित किया तथा उनके द्वारा यदि अपनी निश्रा के सन्त-सतियों को किसी प्रकार का साध्वोचित सहयोग दिया जाता तो, आप उसके प्रति कतज्ञता का भाव प्रकट करना आवश्यक मानते थे। कर्तव्य एवं कृतज्ञता का आपमें अनूठा समन्वय था। कथनी एवं करणी में एकरूपता के आप निदर्शन थे। साधक के आर्जव धर्म की यह पहचान है। कथनी एवं
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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