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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं (१९८ फलस्वरूप चार माह में चार-पांच श्रावक भी जानकार तैयार नहीं होते।" "समय की मांग है कि जैन समाज त्यागी सन्तों के सत्संग का मूल्य समझे और उसमें समाज-निर्माण के किसी ठोस कार्य को गति दे। अभी जैन समाज की स्थिति बड़ी दयनीय है। गांव या नगर , कहीं भी देखिए धर्मस्थान में रजोहरण और पूंजनी की भी बराबर व्यवस्था नहीं मिलेगी। बिल्डिंग लाखों की होगी, | पर नियमित आने वाले दस - बीस भी मुश्किल से होंगे।" ___"आवश्यकता है वर्षाकाल में समाज की इस दुर्बलता को दूर करने हेतु स्थान-स्थान पर स्वाध्याय और साधना का शिक्षण देने की। शिक्षण देते समय शिक्षक और सन्त-सती वर्ग सम्प्रदायवाद से बचकर तुलनात्मक ज्ञान देने का खयाल रखें तो संघ के लिए अधिक लाभकारी हो सकता है। व्यक्तिगत या वर्गगत किसी की न्यूनता बताकर, अपने आपको ऊँचा बताने का समय नहीं है, इससे शासन की प्रभावना नहीं होगी। साधु-धर्म, श्रावक धर्म और सिद्धान्त की मौलिक जानकारी देते हुए परम्परा भेदों का तटस्थ परिचय कराइए, पर स्वयं आलोचना कर रागद्वेष को जागृत न कीजिए।” ____ "स्थानकवासी समाज को साधुवृन्द का ही अवलम्बन है। त्यागीवर्ग पर जिनशासन की रक्षा का बड़ा दायित्व है। उन्हें अपनी महिमा का खयाल छोड़कर चतुर्विध संघ की रक्षा के लिए गांव-गांव और | नगर-नगर में स्वाध्याय और सामायिक-साधना का व्यवस्थित रूप चालू करना चाहिए।" "जिनशासन की रक्षा और हित में हमारी रक्षा एवं हित है। इसलिए परस्पर की निन्दा-आलोचना छोड़कर त्यागीवर्ग भी समाज में निष्पक्ष भाव से ज्ञान, दर्शन, चारित्र की अभिवृद्धि हो, ऐसा कार्य करेगा तो चातुर्मास की सफलता, संघ की स्थिरता और धर्मभाव में दृढ़ता की वृद्धि होगी।" संयममूर्ति चरितनायक ने संयम, संगठन, स्वाध्याय और साधना रूप मार्गचतुष्टयी के लिए गतिशील होने का आह्वान किया। श्रावक-श्राविकाओं में विशेष धर्माराधन, युवकों में ज्ञानवृद्धि, स्वाध्याय, शिक्षण और बालकों हेतु श्री महावीर जैन स्वाध्याय शाला का प्रारम्भ इस चातुर्मास की उपलब्धि रही। उपनगरों में चार स्वाध्याय केन्द्र स्थापित हुए। महावीर भवन में शास्त्र ग्रन्थों के संग्रह हेतु आध्यात्मिक ग्रन्थालय का श्रीगणेश किया गया। इन्दौर में पहले पर्युषण के दिनों में धर्मस्थानक में ध्वनि यंत्र से प्रतिक्रमण कराया जाता था। उसकी व्यवस्था में परिवर्तन हुआ। स्वाध्यायी | भाई के द्वारा प्रतिक्रमण कराया गया और पूर्व प्रचलित प्रथा बन्द हो गई। इस चातुर्मास की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण | उपलब्धि रही-'अखिल भारतीय जैन विद्वत् परिषद्' का गठन। ____ दिनाङ्क १२ व १३ नवम्बर १९७८ को जैन विद्वानों का सम्मेलन हुआ, जिसमें जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, उदयपुर, रायपुर, इन्दौर, अहमदाबाद, बैंगलोर, बम्बई, भोपाल, छोटी सादड़ी, कानोड़ सवाई माधोपुर, शुजालपुर | शाजापुर, ब्यावर आदि नगरों के ५० से अधिक विद्वानों ने भाग लिया। अलग-अलग क्षेत्रों में बिखरे समाज के जैनविद्या में निरत विद्वानों, श्रीमन्तों, कार्यकर्ताओं और संस्थाओं में पारस्परिक सम्पर्क व सामंजस्य स्थापित करते हुए जैन धर्म, दर्शन, साहित्य, इतिहास आदि के अध्ययन-अध्यापन, पठन-पाठन, संरक्षण-संवर्धन, शोध-प्रकाशन आदि को प्रोत्साहन देने के लिए यहाँ अखिल भारतीय जैन विद्वत् परिषद् का गठन किया गया। परिषद् के अध्यक्ष श्री सौभाग्यमलजी जैन मनोनीत किए गए तथा महामन्त्री का दायित्व जिनवाणी के मानद सम्पादक डॉ. नरेन्द्र जी भानावत को सौंपा गया। इन्दौर विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. देवेन्द्र जी शर्मा ने परिषद् का उद्घाटन किया।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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