SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड १९७ आचार्यप्रवर ने फरमाया - “ संघर्षकाल में जिनशासन की रक्षार्थ मन्त्रसाधना का प्रचलन हुआ।" यहाँ से आपश्री धराड़, विलपांक, सर्वन-जामुनिया, सिमलावदा फरसते हुए बदनावर पधारे, जहाँ प्रवर्तक सूर्यमुनिजी के दो सन्त आचार्यप्रवर की अगवानी में सामने पधारे और भव्य नगर- प्रवेश हुआ । यहाँ आपका प्रवर्तक सूर्यमुनिजी एवं श्री उमेश मुनिजी 'अणु' से इतिहास और शासन उत्थान हेतु विचारों का आदान-प्रदान हुआ। यहाँ से विहार कर आप कानवन पधारे, जहाँ तपस्वी श्री लालमुनि जी म एवं श्री कानमुनि जी म. ने आचार्यदेव से अनेक विषयों पर उचित समाधान पाकर प्रमोद व्यक्त किया । ४ जुलाई को आचार्यप्रवर नागदा पधारे। आचार्यप्रवर की प्रेरक वाणी के प्रभाव से यहाँ स्वाध्याय मंडल का गठन हुआ, जिसमें श्री सागरमल जी सियाल श्री लालचन्द्र जी नाहर, श्री गेंदालाल जी चौधरी ( सपत्नीक चारों खंधों के पालक), श्री रामलाल जी नाहर व श्री तेजमल जी चौधरी पाँच सदस्य चुने गये । चार आजीवन ब्रह्मचर्य के स्कन्ध हुए। नागदा से आचार्यश्री शादलपुर, वेटमा, शिरपुर होते हुए अहिल्या की नगरी इन्दौर के उपनगर जानकी नगर पधारे । महासती श्री सायरकंवर जी म.सा. ठाणा ४ का भी इन्दौर पदार्पण हुआ । इन्दौर चातुर्मास (संवत् २०३५) इन्दौर संघाध्यक्ष श्री सुगनमल जी भंडारी, कांफ्रेंस मंत्री श्री फकीरचन्द जी मेहता एवं समस्त श्री संघ के | उत्साह और उल्लास का पारावार नहीं था, क्योंकि विक्रम संवत् २०३५ में आचार्य श्री का ५८वां चातुर्मास इन्दौर में | हो रहा था । भावुक भक्तों की भावभीनी अगवानी ने चातुर्मास के सम्भाव्य फल का संकेत कर दिया था । यहाँ महावीर भवन, इमली बाजार में जनमेदिनी मानो सागर की तरह उमड़ पड़ी और व्याख्यान सुनने एवं धर्माराधन करने हेतु सब तत्पर रहे। युगमनीषी युगप्रभावक चरितनायक आचार्य प्रवर ने अपने मंगलमय प्रवेश के अवसर पर अपने प्रभावी प्रवचन के माध्यम से जनमानस को उद्बोधित करते हुए फरमाया – “ श्रावक-श्राविकाओं को चाहिए कि वे अपने को सामायिक - स्वाध्याय की प्रवृत्ति से जोड़ें। बालकों में संस्कारों का वपन करें। धर्मस्थानों में नियमित स्वाध्याय की | प्रबल प्रेरणा करते हुए भगवन्त ने फरमाया- “ धर्मस्थान में आने वालों के लिए बैठने के आसन तो मिलेंगे, किन्तु पाठकों के लिए रुचिपूर्ण स्वाध्याय -ग्रन्थों का छोटा-सा भी संग्रह नहीं मिलता।” " मुनिराजों के स्वागत समारोह, अभिनन्दन और पुस्तक विमोचन जैसे जलसे निर्ग्रन्थ - संस्कृति | के अनुरूप नहीं हैं । व्यक्तिगत महिमा - पूजा से अधिक संघ एवं शासनहित का लक्ष्य रखेंगे तो वर्षाकाल में शक्ति का अपव्यय नहीं होगा । " " हजारों दर्शनार्थियों का चाहे मेला न लगे, पर नगर के लोग यदि ज्ञान-ध्यान से अपने पैरों पर खड़े हो गए और चातुर्मास के पश्चात् भी धर्मस्थान में साधना और स्वाध्याय की गंगा बहती रही तो | चातुर्मास की सच्ची सफलता होगी। " “प्राचीन समय में जहाँ एक चातुर्मास हो जाता, वहाँ आबालवृद्ध जनों में ऐसी धर्म चेतना आती कि वर्षों के | बाद भी धर्मस्थान में उसका असर दिखाई देता, लोगों की धर्म-भावना स्थिर होती और बीसियों सामायिक, प्रतिक्रमण एवं तत्त्वज्ञान के ज्ञाता तैयार हो जाते। कई अजैन बन्धु भी जैन धर्म के श्रद्धालु बनते और वर्षों तक चातुर्मास की सुवास बनी रहती । आज दर्शनार्थियों के मेलों पर साधु-साध्वियाँ और श्रावकगण सन्तोष मान लेते हैं ।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy