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________________ xviii आमुख चांदनी चौदस को सूर्य द्वारा कर्क रेखा से मकर रेखा पर संक्रमण करने की तैयारी के समय 13 जनवरी 1911 को हआ जो मकर संक्रान्ति के शाश्वत दिवस की भांति आपके जीवन के शाश्वत लक्ष्य का संकेत कर रहा था। जन्म से ही महान् लक्ष्य की ओर अग्रसर बालक हस्ती ने माघ शुक्ला द्वितीय द्वितीया संवत् 1977 दिनांक 21 फरवरी 1921 को त्याग एवं सेवा की प्रतिमूर्ति अध्यात्मपुरुष आचार्यप्रवर श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. का शिष्यत्व स्वीकार करते हुए अजमेर में मात्र 10 वर्ष 18 दिन की वय में प्रव्रज्या-पथ पर दृढ़-श्रद्धा एवं वैराग्य के साथ चरण बढ़ाए। माता रूपा देवी की कुक्षि से जन्म के पूर्व ही पिता केवलचन्द जी का देहावसान, माता रूपा देवी के विरक्ति भाव, दादी नौज्यां बाई का स्वर्गवास, नाना गिरधारीलाल जी मुणोत एवं उनके विशाल परिवारजनों की प्लेग से अकाल मृत्यु आदि एक के बाद एक दृश्यों का साक्षात्कार कर संसार की अनित्यता को गर्भ एवं शैशव अवस्था में ही समझ लेने वाले बालक हस्ती का वैराग्य साधारण वैराग्य नहीं था। यह उनके भावी महान सन्त के व्यक्तित्व की आधारभूमि थी। माता के दुग्ध से, वचनों से, नयनों से एवं व्यवहार से मी आप में वैराग्य का ही भाव पष्ट होता गया। शैशव अवस्था में ही माता के साथ महासती बड़े धनकंवरजी म.सा. का सान्निध्य, महान संत स्वामी जी श्री हरखचन्द जी म.सा. की आत्मीयता और पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. के मार्गदर्शन से आपका महान् व्यक्तित्व एक विशिष्ट आकृति ग्रहण करता चला गया। आपके व्यक्तित्व निर्माण में स्वामी जी श्री हरखचन्द जी म.सा. का अनुपम योगदान रहा। आपके सान्निध्य में बैठकर मुमुक्ष हस्ती ने आगम और थोकड़ों का अभ्यास किया, साथ ही वह मुनिचर्या के वैशिष्ट्य से भी अवगत हुआ। उत्कृष्ट साधु-जीवन का प्रथम परिचय, प्रमाद-परित्याग एवं श्रम की महिमा का बोध आपको स्वामीजी श्री हरखचन्द जी म.सा. से हुआ। आपको स्वामीजी से अप्रमत्तता का सूत्र मिला MENTreamIIMara गणो गुमणोलीसीसमाज आपके व्यक्तित्व निर्माण में मैथिल ब्राह्मण पंडित श्री दुःखमोचन जी झा का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी भाषा की व्याकरण एवं साहित्य का गूढ़ ज्ञान कराने के साथ पंडितजी ने अपनी सरलता, शीतलता एवं श्रमशीलता से चरितनायक को प्रभावित किया। चरितनायक के शब्दों में- "पण्डित जी यद्यपि गृहस्थ थे, फिर भी वे साघुवत् सरल, सुशील, संतोषी एवं त्याग-तप के रसिक थे। जीवन की आवश्यकताओं के बाद बचा हुआ उनका प्रत्येक क्षण हमारे लिए उत्सर्ग रहता था।"पण्डित सदासुखजी शास्त्री का यह उपहास कि "पढ़े लिखे जैन संत साधारण ब्राह्मण की मी बराबरी नहीं कर सकते हैं आपके तलस्पशी गहन अध्ययन के . लिए प्रेरक बना। विनयशीलता, सेवा-भाव, विवेकित्व, अप्रमत्तता, स्वाध्यायशीलता, गुणग्राहकता, संयम-निष्ठा, परीषह-सहिष्णुता, निर्भयता, निर्दोष संयम-पालन के प्रति कठोरता आदि गुणों का मुनि श्री हस्ती में आधान होता देख गुरुदेव आचार्यप्रवर श्री शोभा को परम प्रमोद का अनुभव होता। उन्होंने चरितनायक में। शास्त्रवाचन एवं अधिगम की योग्यता का पूर्ण संवर्धन किया तथा वात्सल्य भाव से मनोबल को पुष्ट किया। वरिष्ठ सहयोगी सन्तों के सद्गुणों ने भी आपके व्यक्तित्व निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। पूज्य। गुरुदेव आचार्यप्रवर श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. के हृदय में आपने इन असाधारण सद्गुणों के कारण ऐसा विशिष्ट स्थान बनाया कि पूज्य गुरुदेव ने मात्र 15 वर्ष की किशोर वय में आपका संघ के भावी आचार्य के रूप में || मनोनयन कर दिया। यह अपने आप में एक विस्मयकारी घटना थी। वे शिष्य तो धन्य हैं ही, जिनके हृदय में गुरु निवास करते हैं, किन्तु वे शिष्य और भी अधिक धन्य हैं.जो || गुरु के हदय में निवास करते हैं। मुनि हस्ती का इतनी लघुवय में आचार्यपद पर मनोनयन इस बात का प्रतीक था कि आपने अपने सद्गुणों से महान् सुयोग्य शिष्य एवं उव्यकोटि के श्रमण के रूप में अपने गुरुदेव के हृदय में) -
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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