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________________ - - ---- ---- - E an वीर निर्वाण की 25वीं शती के उत्तरार्द्ध एवं 26वीं शती के प्रथम चतुर्थाश (पौष शुक्ला चतुर्दशी विक्रम : संवत् 1967 से वैशाख शुक्ला अष्टमी संवत् 2048, दिनांक 13 जनवरी 1911 से 21 अप्रेल 1991 तक) के जैन श्रमण-संस्कृति के इतिहास में परम पूज्य आचार्यप्रवर श्री हस्तीमल जी म.सा. का नाम एक महान् अध्यात्मयोगी, उच्चकोटि के अप्रमत्त साधक, गहन विचारक, सामायिक एवं स्वाध्याय के अप्रतिम प्रेरक, प्रज्ञाशील, युगप्रभावक आचार्य के रूप में सदियों तक स्मरण किया जाता रहेगा। श्रमण' के लिए प्राकृत भाषा में प्रयुक्त 'समण' शब्द के शमन, समन और श्रमण ये तीनों अर्थ आचार्य। श्री हस्ती में एक साथ प्रदीप्त थे। 'शमन' शब्द से कषायों की उपशान्ति (उवसमसारं खु सामण्णं-बृहत्कल्प भाष्य | 1.35) का बोध होता है, 'समन' शब्द समभाव की साधना (समयाए समणो होइ-उत्तरा.25.32) को अभिव्यक्त करता है तो 'श्रमण' शब्द सम्यग्ज्ञानपूर्वक संयम में पराक्रम (नाणी संजमसहिओ नायवो भावओ समणो-उत्तरा. नियुक्ति 389) का अभिव्यंजक है। अनुयोगद्वार सूत्र में 'समण' शब्द का प्रयोग सु-मन वाले के लिए भी (तो समणो जइ सुमणो) हुआ है। आचार्य श्री हस्ती के जीवन में क्रोध, मान, माया एवं लोभ कषाय की उपशान्ति से || समण का 'शमन' अर्थ सार्थक है। विषम परिस्थितियों में भी समभाव के अभ्यास के कारण 'समन' अर्थ तथा निरन्तर निरालस और अप्रमत्त रहकर संयम में श्रमशीलता, पराक्रम या पुरुषार्थ से 'श्रमण' अर्थ भी उनमें चरितार्थ है। मन की निष्कपटता एवं निर्मलता के कारण सु-मन तो वे थे ही। राग-द्वेष पर विजय का पथ प्रशस्त करने वाले जिनधर्म, आत्म-विकारों की ग्रन्थियों का मोचन करने । वाले निर्ग्रन्थ धर्म अथवा पूज्य अर्हत् (अरिहंत, अरुहंत, अरहत) द्वारा उपदिष्ट आहत धर्म में तीर्थकरों के पश्चात् ।। गणघरों एवं आचार्यों की जो परम्परा चली, उसमें आचार्य श्री हस्ती का नाम युगप्रभावक आचार्यों की श्रेणि में स्वर्णाक्षरों में जड़ने योग्य है। भगवान महावीर के उपदेशों एवं आगमों पर आधारित तथा बाह्य आडम्बरों की अपेक्षा आगमज्ञान एवं क्रिया की शुद्धता से चेतना के रूपान्तरण पर बल देने वाली स्थानकवासी परम्परा में धर्मप्राण लोंकाशाह के अनन्तर पूज्य श्री धर्मदास जी म.सा., पूज्य श्री धर्मसिंह जी म.सा. आदि क्रियोद्धारक आचार्यों के पश्चात् पूज्य श्री भूधर जी म.सा. प्रभावक आचार्य हुए। आचार्य श्री भूधर जी म.सा. के शिष्यों में कुशलो जी म.सा. की शिष्य परम्परा आचार्य श्री रत्नचन्द्र जी म.सा. के क्रियोद्धार संबंधी महत्त्वपूर्ण योगदान के | कारण रत्नसंघ (रत्नवंश) के नाम से लोक-विश्रुत हुई। इस रत्नसंघ परम्परा के महनीय महर्घ्य आध्यात्मिक दिव्य रत्न थे-इस जीवन ग्रन्थ के चरितनायक आचार्यप्रवर श्री हस्तीमल जी म.सा.। आत्म-साधना के साथ जगत्कल्याण का आपमें अनूठा समन्वय रहा। प्रायः जो जगत्-कल्याण में लगते हैं, वे आत्म-साधना को भूल जाते हैं तथा जो आत्म-साधना में लगते हैं वे जगत्कल्याण को गौण कर देते हैं, किन्तु तीर्थकरों के अनुसा आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा. में ये दोनों विशेषताएँ थीं। आत्म-साधना के शिखर को छू लेने वाले उन महान् साधक में जन-जन के प्रति करुणाभाव एवं उनके जीवन-निर्माण की प्रशस्त भावना थी। आप भगवान महावीर की निर्ग्रन्थ परम्परा के सच्चे प्रतिनिधि एवं 81 वें पट्टधर होने के साथ रत्नसंघ परम्परा के सप्तम आचार्य थे। 卐 ॥ भारत वसुन्धरा के ललामभूत मारवाड़ प्रदेश के पीपाड़ नगर में जन्म ग्रहण करने वाले पूज्यप्रवर आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा. 'गजेन्द्राचार्य' एवं काव्य साहित्य में 'गजमुनि' नाम से भी प्रसिद्ध रहे। वीतरागता के पथ के सच्चे पथिक एवं भगवान महावीर की शास्त्रधारी सेना के नायक आचार्य श्री हस्ती का जन्म पौष माह की
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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