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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं सामायिक समभाव की साधना है। इसका आराधन मन की आकुलता को दूर करता है, समता एवं शान्ति प्राप्त होती है तथा समभाव के आचरण के माध्यम से जीवन उन्नत बनता है । चरितनायक ने यह संदेश पद्य में इस प्रकार गूँथा - १२० जीवन उन्नत करना चाहो, तो सामायिक साधन कर लो। आकुलता से बचना चाहो, तो सामायिक साधन कर लो। - मन की निर्मलता एवं आध्यात्मिक बल की प्राप्ति भी सामायिक से सम्भव है. तन पुष्टि-हित व्यायाम चला, मन पोषण को शुभ ध्यान भला । आध्यात्मिक बल पाना चाहो, तो सामायिक साधन कर लो ।। विकारों को जीतने, पाप-प्रवृत्तियों से बचने का सामायिक स्वाधीन उपाय है साधन है. - अगर जीवन बनाना है, तो सामायिक तूं करता जा । हटाकर विषमता मन की, साम्यरस पान करता जा ।। भटक मत अन्य के दर पर स्वयं में शान्ति लेता जा ।। सामायिक से पूज्य चरितनायक ने आत्म-जीवन सुधार के साथ देश एवं समाज का सुधार भी स्वीकार किया । यह जीवन निर्माण का सच्चा सामायिक से जीवन सुधरे, जो अपनावेला । निज सुधार से देश, जाति, सुधरी हो जावेला || मनुष्य तन का मैल दूर करने के लिए तो प्रतिदिन स्नान करता है, किन्तु मन के मैल को दूर करने हेतु कोई | उपाय नहीं करता । सामायिक इस मैल को दूर करने का प्रभावी उपाय है । चरितनायक ने इस उपाय पर बल देते हुए कहा - करलो सामायिक से साधन, जीवन उज्ज्वल होवेला । तन का मैल हटाने खातिर नित प्रति न्हावेला ॥ मन पर मल चहुँ ओर जमा है, कैसे घोवेला || समता की प्राप्ति के बिना कोई जीव मोक्ष में नहीं जाता - जो भी गए मोक्ष में जीव, सबों ने दी समता की नींव । समता रूप सामायिक का दो घड़ी (४८ मिनट) का अभ्यास भी मानव को आत्मबली बना सकता है— घड़ी दो कर अभ्यास, महान् बनाते जीवन को बलवान् । सामायिक से मन की व्यथा को दूर कर समता की सरिता का आनन्द लिया जा सकता है - मन की सकल व्यथा मिट जाती, स्वानुभव सुख सरिता बह जाती। चरितनायक की भावना थी कि सामायिक संघ के माध्यम से सामायिक का घर - घर प्रचार हो एवं सामायिक का आराधन कर व्यक्ति सदाचार, सुनीति एवं प्रामाणिकता को अपना लें तो उनका जीवन सदा के लिए उन्नत एवं सुखी हो जाएगा। मनुष्यलोक में स्वर्ग का दर्शन 'जाएगा निर्व्यसनी हो, प्रामाणिक हो, धोखा न किसी जन के संग हो । संसार में पूजा पाना हो, तो सामायिक साधन कर लो ॥
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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