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________________ (प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड जोधपुर भोपालगढ आदि स्थानों के १५ अन्य स्वाध्यायी भी तैयार हुए, यथा- चन्दूलाल जी मास्टर पाली, केवलमलजी लोढा जयपुर, चांदमल जी कर्णावट उदयपुर, चुन्नीलालजी ललवाणी जयपुर, हीराचन्द जी हीरावत जयपुर, राजमलजी ओस्तवाल भोपालगढ, हरकचन्दजी ओस्तवाल भोपालगढ, प्रेमराजजी जैन जयपुर, हीरालाल जी गांधी (वर्तमान आचार्य श्री) , कुन्दनमलजी जैन, देवराज जी भण्डारी जयपुर एवं जसकरणजी डागा, टोंक । श्री स्थानकवासी जैन स्वाध्याय संघ की स्थापना यद्यपि संवत् २००२ में हो गई थी, किन्तु इसकी धीमी गति को इस चातुर्मास में ऐसा बल मिला कि फिर यह निरन्तर प्रगति पथ पर बढ़ता ही गया। आज स्वाध्याय संघ , जोधपुर के अन्तर्गत ७०० से अधिक स्वाध्यायी हैं, जो समय-समय विभिन्न क्षेत्रों में जाकर पर्युषण पर्वाराधन कराते हैं। धर्मप्राण लोंकाशाह ने आगमों के स्वाध्याय के आधार पर ही तो सद्धर्म का, वीतराग प्रभु के सिद्धान्तों के मर्म का बोध पाया एवं आगे चल कर शुद्ध साध्वाचार के स्वरूप को समाज के समक्ष लाकर अभिनव धर्म-क्रान्ति की। श्रावक-श्राविका चतुर्विध संघ के अभिन्न अंग हैं। शासन के उत्थान में उनका दायित्व कम नहीं। उनका कर्तव्य पूज्य संत-सती वर्ग के ज्ञान-दर्शन-चारित्र की प्रगति में मात्र सहायक का नहीं, वरन् ‘अम्मापियरो' के माफिक उनके रत्नत्रय के पोषण का है। श्रद्धेय स्वामीजी श्री पन्नालालजी महाराज साहब के मन में श्रावकों की इस दायित्व भावना एवं इसके आधार पर उनके द्वारा स्वाध्याय के प्रचार-प्रसार की भावना जगी। उन्होंने समाज के समक्ष स्वाध्याय संघ की योजना रखी। परम पूज्य चरितनायक ने इस योजना का महत्त्व ही नहीं समझा, अपितु इसे अभिनव क्रान्ति का रूप दिया। आपने अपने प्रबल पुरुषार्थ से श्रावक-श्राविकाओं के मन में स्वाध्याय की ज्योति आलोकित कर एक विशाल स्वाध्यायी वर्ग का गठन किया, जिसे वे सदैव भगवान महावीर की शास्त्रवाहिनी शान्ति सेना के रूप में संबोधित किया करते। जिस समय में कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि श्रावक वर्ग स्वाध्याय से आगम अनुशीलन एवं थोकड़ों के ज्ञान से अपने को समृद्ध कर सेवा देने को कृत संकल्प हो सकता है व जिनवाणी के प्रचार के पवित्र लक्ष्य से आठ दिन नि:स्वार्थ सेवा देने हेतु घर से बाहर अन्य ग्राम-नगर में जाकर पर्युषण पर्वाराधन करा सकता है उस समय इस योजना को उपहास के साथ देखा जा रहा था, अत: इसे हाथ में लेना एक अति क्रान्तिकारी कदम था। आपका स्पष्ट मन्तव्य था कि आगम-अध्ययन व अनुशीलन साधु-साध्वियों का ही विशेषाधिकार नहीं है। निम्रन्थ प्रवचन में श्रावक-श्राविकाओं के लिये आगम-स्वाध्याय का कहीं निषेध नहीं है। आपका स्पष्ट चिन्तन था कि श्रावक-श्राविका आगम-अवगाहन कर स्वयं तो ज्ञान-क्रिया सम्पन्न व श्रद्धानिष्ठ बनेंगे ही, साथ ही श्रमण-श्रमणी वर्ग की ज्ञान-दर्शन-चारित्र साधना में सहयोगी बन जिनशासन के प्रहरी की भूमिका निर्वहन कर सकेंगे। एक दूर द्रष्टा प्रबल पुरुषार्थी एवं जिनशासन सेवा में सर्वस्व समर्पण करने को उद्यत महापुरुष ही ऐसा साहस कर सकता था। ग्राम-ग्राम, नगर-नगर में रहने वाले स्वाध्यायशील श्रावकों के हृदय में, जिनशासन की सेवा करने की भावना व साहस जागृत करने एवं उनका मार्गदर्शन करने का परिणाम आज सामने है कि देश के कोने-कोने में प्रतिवर्ष सैकड़ों नहीं, वरन् हजारों शान्ति सेनानी आठ दिन के लिए अपना घर, व्यवसाय व नौकरी छोड़ कर एक मात्र चातुर्मास से वंचित क्षेत्रों में जिनवाणी की पावन धारा को प्रवाहित करने के लक्ष्य से अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं एवं उनके माध्यम से सैकड़ों क्षेत्रों के भाई-बहिन, पर्युषण को ही चातुर्मास मान कर सामायिक, प्रतिक्रमण, शास्त्र-श्रवण, व्रत-प्रत्याख्यान व तप त्याग से अपने जीवन को भावित करते हैं। वस्तुत: पूज्य भगवन्त वे भगीरथ थे, जिन्होंने स्वाध्याय संघ के माध्यम से जिनवाणी की पावन गंगा को शास्त्रों के पन्नों की गिरि उपत्यकाओं से बाहर निकालकर
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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