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________________ ४८ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड था कि भावी संघनायक कौन होगा? संघ सदस्यों की नजरें मुनि श्री हस्ती पर टिकी थीं, जिनमें संघनायक के समस्त गुण विद्यमान थे। बाल मुनि हस्ती की उस समय ज्ञानार्जन - और अधिक से अधिक सीखने की रुचि थी। शास्त्रों के तलस्पर्शी ज्ञान के पूर्व उनकी बोलने में रुचि नहीं थी, तथापि श्री उदयराजजी लुणावत प्रभृति श्रावकों द्वारा आचार्य श्री की सेवा में बार-बार निवेदन करने पर बाल मुनि श्री हस्ती ने अपना प्रथम पवचन दिया। मुनि श्री हस्ती ने अपने प्रथम प्रवचन में ही चतुर्विध संघ के श्रोताओं का मन जीत लिया। आचार्य श्री शोभागुरु की सेवा-सुश्रूषा से मुनि श्री का वैयावृत्य तपोगुण भी प्रकट हुआ। शोभागुरु के अन्यान्य परम्पराओं के सन्त-सती वर्ग के प्रति सद्भाव-सम्बंधों के साक्षी मुनि श्री हस्ती में उदारता, सौहार्द तथा सम्प्रदायातीत समन्वयभाव का अद्भुत विकास हुआ। उनका आचार्य शोभागुरु के प्रति प्रगाढ़ भक्तिभाव एवं समर्पण था। इस प्रकार अनेकविध गुणों के निधान एवं सर्वाधिक योग्य होने से मात्र साढ़े पन्द्रह वर्ष की लघुवय में आचार्य शोभागुरु ने उत्तराधिकारी संघनायक के रूप में उनका चयन किया एवं इसका लिखित संकेत सतारा के अनन्य गुरुभक्त एवं निष्ठावान प्रमुख सुश्रावक श्री मोतीलालजी मुथा को सौंप दिया। इस छोटी सी वय में आचार्य पद पर चयन की यह | एक ऐतिहासिक घटना हुई, जिसमें आचार्य श्री शोभाचन्द जी म.सा. की परीक्षण योग्यता एवं दीर्घदृष्टि भी अभिव्यक्त हुई। |. आचार्य श्री शोभागुरु का स्वर्गारोहण जोधपुर स्थिरवास में आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. को अपनी बढ़ती हुई रुग्णावस्था एवं क्षीण होती हुई देहयष्टि से यह विश्वास होने लगा कि अब इस जीर्ण-शीर्ण जराजर्जरित देह से आत्मदेव के प्रयाण का समय सन्निकट है। इस विश्वास से उनकी आत्मलीनता और अधिक एकाग्र और ऊर्ध्वमुखी होती गई। आचार्य श्री जैसे मृत्युञ्जयी पथप्रदर्शक के लिए मृत्यु का वरण तो महोत्सव है, चिन्ता का विषय हो ही नहीं सकता। उन्हें भलीभाँति ज्ञात था - 'मरणं हि प्रकृति: शरीरिणां विकृतिर्जीवनमुच्यते बुधैः ।' मृत्यु तो शरीरधारियों का स्वभाव है। मृत्यु सबकी सुनिश्चित है। यह आश्चर्य है कि हम जी रहे हैं, मृत्यु का झोंका किसी भी क्षण इस जीवन लीला को समाप्त कर सकता है। पर्वत पर रखा दीपक यदि तूफानी हवा से भी नहीं बुझता है तो यह आश्चर्य की बात है, उसके बुझने में कोई आश्चर्य नहीं।। अपना अन्तिम समय जान विक्रम संवत् १९८३ की श्रावणी अमावस्या की प्रातःकालीन पावन-वेला में आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी ने संलेखनापूर्वक संथारा ग्रहण कर लिया। आत्म-चिन्तन में लीन उस महान् आत्मा का मध्याह्न में स्वर्गारोहण हो गया। आचार्य श्री विक्रम संवत् १९१४ की कार्तिक शुक्ला पंचमी के दिन जोधपुर की जिस पावनभूमि साण्डों की पोल जूनी धान मंडी में जिस शरीर के साथ जन्मे, उसी धरती पर लगभग ६९ वर्ष पश्चात् उनका महाप्रयाण हुआ। वयोवृद्ध स्वामीजी श्री सुजानमलजी म. , स्वामीजी श्री भोजराज म. आदि वरिष्ठ सन्तों से परामर्श कर परम्परा के प्रमुख श्रावक श्री मोतीलालजी मुथा सतारा द्वारा जोधपुर, जयपुर, बरेली, पाली, अजमेर, पीपाड़, भोपालगढ़, नागौर, ब्यावर आदि स्थानों के श्री संघों के प्रमुख श्रावकों की बैठक में आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी म.सा. के लिखित संकेत को पढ़कर सुनाया गया कि मुनि हस्तीमल जी महाराज इस गौरवशाली रत्नवंश परम्परा के सप्तम पट्टधर होंगे।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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