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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ४४ उनकी यह स्थिति देखकर जोधपुर के प्रमुख श्रावक श्री चन्दनमलजी मुथा, नवरतनमलजी भाण्डावत, तपसीलालजी | डागा, छोटमलजी डोसी आदि गणमान्य श्रावकों ने स्थिरवास के रूप में जोधपुर विराजने की विनति की। साथ ही यह भी निवेदन किया कि क्रियोद्धारक आचार्य श्री रत्नचन्द्रजी म.सा. ने भी अपनी अन्तिम सेवा का लाभ इसी नगर को दिया, फिर आपकी तो यह जन्मभूमि है। शरीर की लाचारी और व्याधि के कारण विनति को स्वीकार कर संवत् १९७९ माघ पूर्णिमा 'आचार्य श्री ने ठाणा ७ से जोधपुर में स्थिरवास कर लिया, जो संवत् १९८३ तक चला। इस अवधि में चरितनायक मुनि हस्ती एवं अन्य शिक्षार्थी सन्त भी आचार्य श्री शोभागुरु की सन्निधि में ही | रहे । यहाँ पर मुनि हस्ती को पण्डित श्री दुःखमोचन जी झा से अध्ययन का संयोग प्राप्त हुआ। मुनि श्री हस्ती के अतिरिक्त मुनि श्री चौथमल जी एवं नवदीक्षित मुनि श्री लक्ष्मीचन्द जी भी पंडित जी से विद्याध्ययन करते थे । | पण्डितजी शिक्षार्थी सन्तों को प्रातः मध्याह्न और रात्रि को तीनों समय लगन से अभ्यास कराते थे । रात्रि को वे | आवृत्ति कराते और कभी कोई कथा कहते। इसी समय कभी सुभाषित श्लोक याद कराते थे । इस प्रकार बिना रटे | पाठ याद हो जाता था । पण्डितजी के शान्ति, शील, सन्तोष आदि सद्गुण भी अभ्यासी मुनियों के लिए शिक्षाप्रद | रहे। यहाँ पर मुनि श्री हस्ती ने सिद्धान्त कौमुदी, किरातार्जुनीय, भट्टिकाव्य, तर्कसंग्रह, परिभाषेन्दुशेखर की फक्किकाएं, रघुवंश आदि अनेक संस्कृत ग्रंथों का गहन अध्ययन करने के साथ हिन्दी से संस्कृत एवं संस्कृत से हिन्दी में अनुवाद | करने एवं निबंध लिखने का भी अच्छा अभ्यास किया । धाराप्रवाह संस्कृत बोलने में भी मुनिश्री प्रवीण हो गए। | संस्कृत में प्रावीण्य के साथ मुनि श्री हस्ती ने आचार्य श्री शोभागुरु से आगमों का अध्ययन भी जारी रखा। उन्होंने यहाँ रहते हुए दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नंदी सूत्र, वृहत्कल्प, अनुत्तरौपपातिक, आवश्यक सूत्र और विपाकसूत्र का | गंभीर अध्ययन किया। इसके अतिरिक्त जिज्ञासु मुनि हस्ती यदाकदा अवसर मिलने पर ज्योतिष, सामुद्रिक शास्त्र, स्वरविज्ञान और मन्त्रविद्या के सम्बंध में भी प्राचीन एवं अर्वाचीन ग्रन्थों से कुछ सीखते रहते थे । उन्हें इतर साहित्य | कथा, कहानी, पत्र-पत्रिका आदि पढ़ने का शौक नहीं था। स्वामीजी श्री भोजराज जी म. चरितनायक मुनि के बहुमुखी | बौद्धिक विकास के लिए सदा सजग एवं प्रयत्नशील रहते थे । अन्य मुनियों का भी सहयोग प्राप्त था। मुनि श्री | स्वयं दत्तचित होकर निष्ठापूर्वक अध्ययन में लगे रहते थे । चरितनायक अपने गुरुदेव की छत्र-छाया में सहज रूप से मस्त थे। उन्होंने अपने संस्मरण में स्वयं लिखा है- "गुरुदेव की छत्र छाया में इतना मस्त था कि कौन आया और कौन गया, इसका पता नहीं। किसी से बात करने का मन ही नहीं होता-भगिनी - मण्डल से तो बात ही नहीं करता, अपनी दीक्षिता माँ और साध्वीरत्न श्री धनकंवरजी आदि से भी बात नहीं की। हम बच्चों के साथ बैठकर कभी गप-शप नहीं करते । दो-चार बूढे लोग - सन्त या पण्डितजी यही हमारे बात का परिवार था।” जोधपुर स्थिरवास काल 'अन्यान्य परम्पराओं के सन्त भी पधारे एवं उनसे आचार्य श्री का स्नेह सौहार्दपूर्ण मिलन हुआ। इनमें प्रसिद्ध वक्ता जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज आदि ठाणा एवं पूज्य अमरसिंह की परम्परा के मुनि श्री नारायणदास जी म, मेवाड़ी सम्प्रदाय के श्री मोतीलालजी म, मन्दिरमार्गी सन्त श्री हरिसागर जी म. आदि नाम विशेष उल्लेखनीय है । • संघनायक के रूप में चयन इस प्रकार मुनि श्री हस्ती अल्पवय में ही संस्कृत एवं आगम के पंडित हो गए और ज्ञान की विविध विधाओं | तथा अनुभवों की व्यापकता के कारण वे चतुर्विध संघ की दृष्टि के केन्द्र बिन्दु बन गए । आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी | म.सा. की अस्वस्थता एवं वृद्धावस्था के कारण चतुर्विध संघ के सदस्यों के अन्तर्मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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