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________________ (१२) .. रामायण-कालीन समय में प्रायः योग्य ज्येष्ठ पुत्र को ही युवराजपद पर नियुक्त किया जाता था। यदि वह अयोग्य होता तो उसे अपने पद से वंचित कर दिया जाता था। इसके लिए इतिहास साक्षी है कि राजा सगर ने जनता के अनुरोध पर अपने पुत्र को राज्य से निष्कासित किया था क्योंकि वह दुष्ट तथा अत्याचारी था। यदि किसी राजा के पुत्र नहीं होता तो युवराज-पद का अधिकारी राजा का भाई होता था। राम के राज्य के समय भरत को युवराज-पद पर आसीन किया था , क्योंकि उस समय राम के सन्तान नहीं थी। राजा का पद तथा व्यक्तित्व बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता था। रामायण में राजा को देवस्वरूप माना गया है। जैसा कि लंकाधिपति रावण ने मारीच को समझाते हुए कहा था कि "तेजस्वी राजा, अग्नि, इन्द्र, सोम, यम और वरुण इन पाँच का रूप धारण करता है। उसमें इन पांचों के गूण, प्रताप, पराक्रम, सौम्य स्वभाव, दण्ड और प्रसन्नता विद्यमान रहते हैं । अतः सभी परिस्थितियों में राजा का सम्मान और पूजन करना चाहिए। इस प्रकार देव-स्वरूप राजा इस धरातल पर शासन करते थे। रामायण-कालीन शासन-तंत्र के तीन प्रमुख अंग थे। (१) सभा, (२) मंत्रि परिषद् तथा (३) शासनाधिकारी। इन तीनों की सहायता से राजा विधिवत् शासन का संचालन करता था। सभा के सदस्य सभासद अथवा “आर्य-मिश्र कहलाते थे । शासन सम्बन्धी सभी महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर सभा का परामर्श लिया जाता था । ": न्याय-वितरण की पद्धति बड़ी सरल तथा निष्पक्ष थी। उस समय न पेशेवर वकील थे और न ही अदालती खर्चे थे । न्यायालय में किसी भी प्रकार की जटिलता नहीं थी। क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय का अध्यक्ष स्वयं राजा होता था, जो कि न्यायवस्था के शिखर पर था यहीं फैसला आखिरी समझा जाता था। इसके अतिरिक्त अन्य न्यायाधीश होते थे। १. रामायणकालीन समाज पृ० २५५. २. रामायण ३/४०/१२-१४: . ३. रामायणकालीन समाज पृ० २६६.
SR No.032350
Book TitleBharatiya Rajniti Jain Puran Sahitya Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhu Smitashreeji
PublisherDurgadevi Nahta Charity Trust
Publication Year1991
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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