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________________ • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा . मान वहीं निवास किया एवं 'अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ।'- पतंजलि के इस योग सूत्र को जैसे न्याय देते हुए वह हिंसक पशु अपना वैर त्याग उस अहिंसक अवधूत के पास रहा भी । बाद में वह अन्यत्र चला गया । तब से लेकर आश्रम के बनने के बाद उनके जीवनांत तक, उसी गुफा- वर्तमान गुफामंदिर की अंतर्गुफा- में श्री भद्रमुनिजी की साधना चलती रही थी । उसी में १६ फुट का सांप भी रहता था । कई व्यक्तियों ने उसे देखा भी है। पिछले कई वर्षों से वह अदृश्य है। इस प्रकार भद्रमुनिजी ने इस प्राचीन साधनाभूमि पर अहिंसा की पुनः प्रतिष्ठा कर हिंसक मानवों, पशुओं एवं प्रेतात्माओं से मुक्त, शुद्ध एवं निर्भय बनाकर साधकों के लिए साधना योग्य बनाया। वहीं की अन्य गुफाओं एवं उपत्यकाओं में कुछ साधक अब निर्भय रूप से साधना कर रहे हैं। उनमें से कुछ का परिचय प्राप्त कर लें। मैंने देखा उन साधकों को - यहाँ विभिन्न प्रांतों के कुछ साधक स्थायी रूप से रहते हैं । हज़ारों प्रतिवर्ष यथावकाश यहाँ आते हैं । लाखों की संख्या में पर्यटक भी प्रतिवर्ष इस आश्रम को देखने आते हैं । स्थायी साधकों में से तीन का परिचय प्रस्तुत है : खेंगारबापा : ८० साल का गठीला शरीर, गोल, चमकदार, भव्य चेहरा, बड़ी-बड़ी आंखें, आधी बांह की कमीज़ व आधा पतलून पहने हुए-ये हैं खेंगारबापा । कभी डोलते, कभी स्थिर कदमों से चलते हुए वे 'यंत्रमानव' के-से लगते हैं। पद्मासन लगाकर जब वे ध्यान करते तब पहाड़ के किसी एकाकी, अड़िग, पाषाण खण्ड-से लगते । वे कच्छ के मूल निवासी थे, परंतु मद्रास में बस गये थे । जवाहरात का उनका कारोबार खूब चल रहा था । अमूल्य रत्नों की परख करते-करते आंतरिक रतन-आत्माराम को परखने की उत्कट इच्छा जागी, गुफाओं का बुलावा सुनाई दिया । संसार की मोह-माया से मुक्त होने का समय भी हो चुका था । अतः वे सद्गुरु की खोज में निकल पड़े । २५,००० रुपयों का खर्च एवं भारतभ्रमण करने के पश्चात् किसी शुभ घड़ी में यहाँ हंपी आ पहुंचे एवं बस गये । सात साल बीत गये, वे अब भी यहीं हैं । यहीं समाधि लगाने की एवं देह छोड़ने की उनकी इच्छा है। उन्होंने अपनी साधना में काफी प्रगति की है, ऐसा ज्ञात होता है। उनका विशाल हृदय परोपकार की भावना से भरा हुआ है । वे बोलते बहुत कम हैं, अधिकतर मौन ही रहते हैं । बाकी लोगों की बातें चल रहीं हों. तब भी वे बैठे-बैठे अपने अंतर-ध्यान में डब जाते हैं और अपने आत्माराम की बातें सुनने लगते हैं। अधिक समय वे अपनी उपत्यका में बिताते हैं । “निज भावमां वहेती वृत्ति" की उच्च साधना की प्रतीति में उन्हें दिव्य वाद्यों का अनाहत नाद एवं घंटारव सुनाई देता है। ध्यान एवं भक्ति के सामुदायिक कार्यक्रम के समय पद्मासन में, स्तम्भ-से दृढ़ बैठे एवं निज आनंद इस लिखावट के कुछ वर्ष बाद खंगारबापा समाधिपूर्वक देह त्याग कर चुके हैं। __(62)
SR No.032332
Book TitleSahajanandghan Guru Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherJina Bharati
Publication Year2015
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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