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________________ • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा . । जब ये तांत्रिक पशुबलि दे रहे थे, तब भद्रमुनि उन्हें प्रेम से समझाने उनकी ओर एक दिन चले। चट्टानों के ऊपर से आ रहे मुनि को देखकर तांत्रिक तत्क्षण ही उन्हें मार देने के विचार से उनकी ओर दौड़े । हाथ में हथियार थे । मुनिजी ने उनको आते देखा, परन्तु उन्हें अहिंसा व प्रेम की शक्ति पर विश्वास था, अतः वे निर्भय रूप से उनकी तरफ चलते रहे... कुछ क्षणों की ही देर थी... शस्त्रबद्ध तांत्रिक उनकी ओर लपके... उस अहिंसक अवधूत का हाथ आदेश में ऊँचा उठा, अपलक आंखों से उन्होंने तांत्रिकों को देखा.... और उनमें से अहिंसा और प्रेम के जो आंदोलन निकले, उनके आगे तांत्रिक रुक गये, उनके शस्त्र गिर गये एवं वे हमेशा के लिए वहां से भाग खड़े हुए । अहिंसा के आगे हिंसा हार गई !! निर्दोष पशओं को अभयदान मिला हमेशा के लिए । हिंसा सदा के लिए विदा हो गयी । निर्दोष पशुओं के शोषण से मलिन वह धरती पुनः शुद्ध हो गई । 'देवीगुफा' नामक यह पशुबलि स्थान आज सूना पड़ा है । गुफा की दीवार पर उत्कीर्ण खड़ी है चूपचाप उस तांत्रिक अंधश्रद्धा-देवी की मूर्ति । हिंसा के स्थानों में अहिंसा की प्रतिष्ठा... ! हिंसा को मिटाने के साथ ये अवधूत अहिंसा और प्रेम के शस्त्र से उन हिंसक तांत्रिकों को बदलना चाहते थे, परंतु वे रुके नहीं । उनके भागने की बात सुनकर इस घटना में हिंसा के ऊपर अहिंसा की विजय देखने के बजाय लोग इसे 'चमत्कार' मानने लगे । अन्य तांत्रिक, मैली विद्या के उपासक, चोर-डाकू व शराबी भी इस स्थान से चले गये । आखिर लातों के भूत बातों से कैसे मानते ? वे तो 'चमत्कार' को ही 'नमस्कार' करनेवाले जो थे ! कई साधकों ने इन निर्जन गुफाओं में अशांत, भटकती प्रेतात्माओं का आभास पाया था, अतः भद्रमुनिजी ने इन गुफाओं को शुद्ध बनाया व प्रेतात्माओं को शांत किया । अब बचे थे हिंसक प्राणी । श्रीमद् राजचंद्र द्वारा अनुभूत एवं 'अपूर्व अवसर' में वर्णित ऐसे उन 'परम मित्रों' का परिचय भद्रमुनिजी को अन्य वनों-गुफाओं में हो चुका था । श्रीमद् के शब्द उनके मन में गूंज रहे थे : "एकाकी विचरतो वळी श्मशानमां, वळी पर्वतमां वाघ सिंह संयोग जो, अडोल आसन ने मनमा नहीं क्षोभता, परम मित्रनो जाणे पाम्या योग जो । अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे ?" शेर, बाघ, चीते- ये 'परम मित्र' दिन में भी दिखाई देते । जिस गुफा में ये एकाकी अवधूत साधना करना चाह रहे थे, उसमें भी एक चीता रहता था । परंतु उन्होंने निर्भयता से उसे अपना मित्र (61)
SR No.032332
Book TitleSahajanandghan Guru Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherJina Bharati
Publication Year2015
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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