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________________ करती हुईं । हमारे समग्र परिवार का कार्यबल परमगुरुओं के योगबल ने संवर्धित किया । सद्गुरु कृपा के ये सृजन हमारे नन्हे हाथों से चलते रहे। पर इन सभी के होते, बनते हुए भी गुरुदेव सजीवन मूर्ति का अल्प-संग काल में ही विदा हो जाना हमारी विरह-व्यथा बढ़ाता ही रहा । गुरुदेव के, अग्रज के प्रयाण उपरांत की इन व्यथा की और प्रतिकूलताओं के बीच से भी गुरुकृपा से आकार लेती हुई उपर्युक्त सर्जन-प्रवृत्तियाँ अभी चल ही रही थीं कि हम दोनों पर, सारे परिवार पर एवं स्वयं इन प्रवृत्तियों पर एक और दारुण दुःख भरा वज्राघात हुआ - हमारे जीवन की एवं इन प्रवृत्तियों की प्राणरुप ज्येष्ठा सुपुत्री कु. पारुल के भी युवावस्था में असमय ही मोटर दुर्घटना में विदा हो जाने का ! वज्राघात पर वज्राघात !! क्या हमारी नियति, ज्ञानी जाने !!! परंतु फिर हमारे हाथ थामते रहे सभी परमगुरु और उनकी प्रतिनिधि-सी परमछाया माँ । फिर उनकी छाया भी चल बसी १९९२ में । तब सुदूर आबु से विदुषी विमलाताई ने हाथ पकड़ा और आश्रम के हमारे ही मेनेजींग ट्रस्टी ने नकारा हुआ, गुरुदेव का ही आदेशित 'सप्तभाषी आत्मसिध्धि" संपादन-प्रकाशन का काम ताई ने अर्थप्रदान भी करके पूर्ण करवाया और इस प्रकार इडर में हुआ गुरुदेव-मिलन एक सूचक रूप में उन्होंने सार्थक किया - यह भी दिव्य मातृरूप का प्रत्यक्ष दृष्टांत । इन सारे जीवनप्रसंगों और प्रत्यक्ष सत्संगों से माँ एवं विशेषकर विदेहस्थ गुरुदेव के जीवन को हम हमारी 'सद्गुरु पत्रधारा' से भी अधिक आगे बढ़कर खोजते और जानते रहे । और जैसा कि ऊपर कहा, उनके महाजीवन को यहाँ हम अभी अल्पांश में ही प्रस्तुत कर पाये हैं । इस चरित्र-गाथा को स्वानुभवों के साथ और विशाल परिप्रेक्ष्य में लिखने के उपक्रम में जो कुछ श्रेष्ठ और सत्य हो वह सब उन महापुरुषों का है एवं सीमित, क्षतिपूर्ण या दोषयुक्त कहीं हो तो हमारा । पाठकवृंद विवेकयुक्त हंस-क्षीर न्यायदृष्टि से इस का उपयोग करें - विशेषकर नूतन पिढ़ी और हमें अपने दोष बतायें भी । गुरुदेव के इस महाजीवन को हमने अपने स्वानुभवों, मद्रित साहित्य सामग्रियों से भी अधिक उनके दिव्यानुभूतिपूर्ण चिरंतन प्रवचनों से अधिक समझा है और इन सब से उनका युगप्रभावक महामानव, विश्वमानव स्वरूप हमें दिखाई दिया है जो उनके युगप्रधान पद को सिध्ध करता है। उनके इसी अपेक्षित विराट रूप में उन्हें प्रस्तुत करने की हमारी दृष्टि और बालचेष्टा रही हैं । इस भिन्न-सी दृष्टि से गुरुदेव का कच्छ में जन्म लेकर, उत्तर एवं भारतभर में साधना-भ्रमण कर, अंत में कर्णाटक में-पूर्वकालीन युगप्रधान भद्रबाहु की योगभूमि एवं मुनिसुव्रत स्वामी भगवान की सिद्धभूमि में - आकर बसना, शेष जीवन बिताना कई दृष्टियों से सूचक, समन्वयात्मक और महत्त्वपूर्ण होकर बहुत कुछ अर्थ रखता है। भविष्य यह सिद्ध करेगा। जैसे जैसे समय बीतता जाएगा, उनकी महत्ता, सार्थकता, प्रासंगिकता और प्रभावकता बढ़ती जाएगी। इसलिए हमने इस गाथा ग्रंथ में प्रथम पार्श्वभूमिका के रूप में "कर्णाटक की कंदराओं में युगप्रधान भद्रबाहु से लेकर वर्तमान युगप्रधान भद्रमुनि-सहजानंदघनजी तक" एवं "भद्रमुनि की पृष्ठभूमि", "सिद्धभूमि का इतिहास", "आश्रमकथा-आत्मकथा" एवं स्वानुभूतियों से युक्त "अष्टापद रहस्य ३. “प्रतापभाई ! प्रतिकूलताओं को अनुकूलताएँ मानें !" (xiv)
SR No.032332
Book TitleSahajanandghan Guru Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratap J Tolia
PublisherJina Bharati
Publication Year2015
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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